शर्मिंदगी
मुझे अब भी नींद नहीं आ रही है. शिखा दीदी के घर के इस कमरे में दीवार में टंगी एक तस्वीर की ओर देख रही हूँ. दीदी के शादी के दिन की तस्वीर है जिसमे मैं, मधु दीदी और शिखा दीदी एक साथ है. हम तीनो बहने उस दिन बेहद खुबसूरत लग रही थी, और कितनी खुश भी थी हम तीनो उस दिन.
शिखा दीदी ने मुझे जो मैक्सी पहनने को दी है, वो बेहद मुलायम और आरामदायक है फिर भी कुछ कमी लग रही है. मैं जानती हूँ कि उस मैक्सी में मुझे क्या परेशान कर रहा है. मैंने सालो से अपने पैरो को वैक्स नहीं किया है. कल सुबह उठते ही दीदी से वैक्सिंग करने के लिए कहूँगी. पर इस वक़्त मुझे सोना चाहिए इससे पहले की बहुत देर हो जाए. पर कैसे सोऊं? मेरे मन में अब भी सभी पुरानी बाते याद आ रही है.
मुझे आज भी वो पल याद आता है. मैं शिखा दीदी के साथ उनके कमरे में हँसते हुए बातें कर रही थी. जब से मेरी माँ गीता ने मुझे लड़की का जीवन जीने मजबूर की थी, मेरा घर से बाहर निकलना लगभग बंद सा हो गया था. मैं अब किसी से मिलती भी नहीं थी. स्कूल से आते ही बस गीता की घर के काम करने में मदद करती थी. मैं नहीं चाहती थी कि बाहर का कोई मुझे लड़की के रूप में देख कर मेरा मजाक उडाये. घर के काम के बाद जो थोडा बहुत समय मिलता था, उसमे मैं शिखा दीदी से बात करती थी या फिर स्कूल की पढाई. अब शिखा दीदी के अलावा कोई नहीं था मेरे जीवन में जिससे मैं अपनी दिल की बातें कर सकू. वो मुझे हमेशा हंसाते रहती थी.
“मधु, ज़रा शर्मा जी की दूकान से १ किलो प्याज ले आना. घर में प्याज ख़तम हो गए है”, मेरी माँ गीता की आवाज़ थी वो. आजकल, अपनी माँ की आवाज़ सुनते ही मुझे डर लगने लगता था. पता नहीं वो कब किस बात पर मुझ पर नाराज़ हो जाए, कोई भरोसा न था.
“माँ, कल मेरी परीक्षा है. तुम सोनाली को क्यों नहीं भेज देती दूकान? वो वैसे भी खाली बैठी है”, मधु ने अपने कमरे से आवाज़ दी. “सोनाली को क्यों नहीं भेज देती? मैं सोनू हूँ, सोनाली नहीं”, मेरा दिल चीख उठा. मैं घर से बाहर कदम नहीं रखना चाहती थी. इस तरह तो बिलकुल भी नहीं जब मैं सलवार सूट पहनी हुई थी. कोई भी मुझे देखते ही जान सकता था कि मैं सोनू हूँ कोई लड़की नहीं. मेरे बाल लडको की तरह थे और तब मैं चलती भी लडको की तरह थी. मेरी आवाज़ भी तो लडको की थी. आखिर मैं लड़का जो थी! कोई भी नहीं मानता कि मैं लड़की हूँ यदि मैं घर से बाहर निकलकर किसी से बात करती.
“सोनाली!”, मेरी माँ की आवाज़ एक बार फिर आई. मुझे जल्दी ही कुछ सोचना पड़ेगा इस मुसीबत से बचने के लिए, वरना मेरी माँ का गुस्सा उसकी बात न मानने पर फिर मुझे पर बरपेगा. मैंने शिखा दीदी की ओर देखा. और दीदी ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे हौसला देने की कोशिश की. वो इस स्थिति को संभाल लेगी, उनकी आँखों ने कहा.
“माँ, मैं लेकर आती हूँ प्याज दुकान से. वैसे भी मैं पढाई से ब्रेक ले रही हूँ थोड़ी देर.”, शिखा दीदी ने मेरी मदद करने की कोशिश की. पर जैसे ही वो उठकर जाने वाली थी, गीता कमरे में आ गयी. उसे देखते ही मैं डर से कांपने लगी.
“क्या मैंने तुझसे कुछ कहा शिखा? या मैं सोनाली से कह रही थी?”, गीता गुस्से में दिख रही थी.
“पर माँ…”, शिखा दीदी ने रोकने की कोशिश की. “कोई पर वर नहीं.. मुझे प्याज चाहिए और वो सोनाली ही लाकर आएगी. वो कोई राजकुमारी नहीं है जो यहाँ घर पर आराम से बैठी रहेगी”, गीता का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था.
राजकुमारी? पूरा दिन घर में काम कराने के बाद भी मुझे राजकुमारी कह रही है? मेरी ज़िन्दगी तो सिंडरेल्ला से भी ख़राब थी. मैं घर में तो मजदूरी करते शर्मिंदगी महसूस करती ही थी पर अब गीता मुझे घर के बाहर भी ज़लील करना चाहती थी. मेरी आँखों में आंसूं की धरा बह निकली थी. शिखा दीदी ने मुझे तुरंत गले लगाकर चुप कराने की कोशिश की. “अब बस करो माँ. कितना रुलोगी इसे? मुझे थोडा समय दो. सोनाली ही तुम्हारे लिए प्याज लेकर आएगी. तुम बाहर जाकर बैठो.”, शिखा दीदी ने माँ से कहा. दीदी की बात सुनकर गीता ने हम दोनों की ओर घुर कर देखा और कमरे से बाहर चली गयी. न जाने उसकी आँखों से माँ का प्यार कहाँ चला गया था.
शिखा दीदी ने मेरी आँखों से आंसू पोंछे और मेरी चुन्नी पकड़ कर मेरे सर पर रखते हुए मुझे कुछ ऐसे ओढा दी जिससे मेरा चेहरा भी थोडा छिप गया था. वो मेरी ओर देख कर मुस्कुरायी और बोली, “देख, अब तुम अपने चेहरे को ऐसे छुपा लोगी तो कोई तुम्हे पहचान नहीं सकेगा. अब बस तुम्हे थोड़ी बात करना सिखने की ज़रुरत है. तुम्हे दुकानवाले से सिर्फ इतना कहना है ‘१ किलो प्याज’, बाकी वो खुद कर लेगा. और तुम उसे पैसे देकर वापस आ जाना. चलो अब मेरे साथ लड़की की आवाज़ निकालने की प्रैक्टिस कर लो”, शिखा दीदी बेहद प्यारी थी. उसने मेरे साथ तब तक प्रैक्टिस की जब तक मेरी आवाज़ लड़की से मेल नहीं खाने लगी. मैं पहले तो कुछ देर सुबक रही थी, पर फिर दीदी की प्यार भरी बातों से मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गयी. मेरी आवाज़ बिलकुल लड़कियों की तरह तो नहीं हुई थी पर फिर भी ठीक ही थी. किसी चेहरे को ढंकी हुई औरत से वैसे भी कोई ज्यादा सवाल नहीं करता. कुछ कमी न रह जाए इसलिए दीदी ने मेरे माथे पर एक बड़ी सी लाल गोल बिंदी लगा दी और होंठो पर हलकी से लिपस्टिक. दीदी ने एक बार फिर मुझे गले लगाकर कहा, “देख सोनू, घबराने की कोई बात नहीं है. मैंने जैसे कहा है वैसे ही करना. अब जल्दी से प्याज लेकर आ जा.” हम दोनों बहने एक दुसरे को देख मुस्कुरा दी.
मैं दीदी के साथ कमरे से बाहर आकर गीता के हाथ से थैला और पैसे लेकर घर से निकलने को तैयार थी. शिखा दीदी ने मेरा आत्म-विश्वास काफी बढ़ा दी थी. मैं अपने सर पर चुन्नी रख कर एक हाथ से अपने चेहरे को ढँक, घर से बाहर निकलने लगी. पर जैसे ही घर की दहलीज को लांघने वाली थी, मैंने कविता को देखा, जो एक ३० वर्षीया औरत थी और हमारे सामने वाले घर में रहती थी. उसने भी एक बार मेरी ओर देखा, पर फिर वो जैसे मुझे ही एकटक देखने लगी. मेरे पैर अपनी जगह से अब डर से हिल नहीं रहे थे. कविता की नज़र मुझ पर पड़ते ही मैं सहम गयी थी. मैं भीतर ही भीतर कांपने लगी. मेरा चेहरा तो अब भी ढंका हुआ था. पर क्या कविता ने मुझे पहचान लिया था? मुझे उस जगह से तुरंत आगे बढ़ जाना चाहिए था कि इससे पहले वो मुझे पहचान ले, पर मेरे पैरो ने मुझे धोखा दे दिया. वहां मुझे खड़े जैसे अनंत समय हो गया था. मैं खुद से कहने लगी, “निकल जा सोनु, जल्द से जल्द निकल जा.” पर मैं चल नहीं सकी. मैं और कविता एक दुसरे को दूरी से देखते रहे.
मुझे पता नहीं कि हम एक दुसरे को कितनी देर तक देखते रहे पर वह देर काफी थी कविता के मन में संशय जगाने के लिए. शायद, उसे पता नहीं था कि चुन्नी में ढंके चेहरे के पीछे यह मैं हूँ. शायद कौन है यह नयी लड़की जानने की जिज्ञासा में कविता ने अपने कदम मेरी ओर आगे बढ़ाये. शायद वो जानना चाहती थी कि मैं उसे क्यों इस तरह घुर रही हूँ.

उस पल जैसे ही कविता आगे बढ़ी, मेरे पैरो में वापस जान आ गयी और मैं चलने लगी. मैं तेज़ी से उस दूकान की ओर बढ़ने लगी जो मेरे घर से अधिक दूर न थी. मैं जल्दी जल्दी चलने लगी, और पीछे मुड़कर नहीं देखी. मुझे नहीं पता था कि कविता मेरे पीछे पीछे आ रही है या नहीं. मैं बस उम्मीद कर सकती थी कि वो वापस अपने काम में लग गयी होगी.
मैं किराने की दूकान तक पहुच चुकी थी. पर मेरे दिल की धड़कने बहुत बढ़ चुकी थी अब तक. मैं बहुत घबरायी हुई थी. इस घबराहट में मैं दुकानदार शर्मा अंकल से कुछ कह भी नहीं सकी, और वो बस मेरी ओर देखते रहे. शुक्र था कि मेरा चेहरा अब तक ढंका हुआ था. कुछ दिन पहले तक मैं इस दूकान में लगभग हर दुसरे दिन सोनू, एक लड़के, के रूप में आती थी, इसलिए शर्मा अंकल मुझे अच्छी तरह जानते थे. “क्या चाहिए मैडम?”, शर्मा अंकल ने पूछा. मैडम शब्द सुनते ही जैसे मुझे थोड़ी राहत मिली. शर्मा अंकल अब तक मुझे पहचान नहीं सके थे.
अब मुझे बस अपनी प्रैक्टिस के अनुसार ‘एक किलो प्याज’ लड़की की आवाज़ में उनसे कहना था. पर मेरी साँसे और धड़कने तेज़ चलने की वजह से अब भी उखड़ी हुई थी. मैंने कोशिश की लड़की की आवाज़ में कहने की पर मेरी आवाज़ बेहद धीरे निकली जिसे कोई सुन नहीं सका.. “एक किलो प्याज”, मैंने फिर प्रयास किया पर फिर भी आवाज़ न निकली. “मैडम, ज़रा जोर से बोलिए. मैं सुन नहीं पा रहा हूँ”, शर्मा अंकल ने कहा. वो और दूकान में उनका सहायक दोनों मेरी ओर एकटक देख मेरे कुछ कहने का इंतज़ार करने लगे. “एक किलो प्याज”, इस बार मेरी आवाज़ थोड़ी तेज़ थी फिर भी नाकाफी. “मैडम, ज़रा जोर से कहिये”, अंकल जी चिढ रहे थे. “एक किलो प्याज”, इस बार मैं लगभग चीख उठी पर मेरी आवाज़ लड़की की तरह न निकल कर मेरी असली आवाज़ निकल पड़ी. इस गलती का अहसास होते ही मैं एक बार फिर घबरा गयी. शिखा दीदी के साथ प्रैक्टिस करते वक़्त कितना आसान लग रहा था सब, पर कविता को देखते ही जैसे मेरा पूरा आत्मविश्वास डगमगा गया था. मैं पसीने से अन्दर ही अन्दर तरबतर हो रही थी. मैं अपना चेहरा पोंछना चाहती थी अपनी चुन्नी से, पर फिर मेरा चेहरा भी सब को दिख जाता.
शायद मेरी आवाज़ शर्मा अंकल को जानी पहचानी लगी इसलिए वो मेरी ओर घुर कर देखने लगे. मैंने डरकर अपने चेहरे को पूरी तरह से ढंकने की कोशिश की. “सोनू? तुम सोनू हो न?”, अंकल ने मुझे मेरी आवाज़ से पहचान लिया था. मैं तो शर्म से वहीँ डूब कर मर जाना चाहती थी. “नहीं”, मैंने एक आखिरी कोशिश की खुद को बचाने की पर अंकल को अब यकीन हो गया था. वो हँसने लगे और मुझसे बोले, “क्या करते रहते हो तुम लोग? ये लड़कियों की तरह सलवार सूट क्यों पहन रखा है?” मैं वहां शर्म में खड़ी रही. मुझे पता नहीं था कि आगे और क्या कहू.
मानो जैसे इतनी शर्मिंदगी का एहसास काफी नहीं था, तभी मुझे एक औरत की आवाज़ सुनाई दी जो मेरी बगल में आकर खड़ी हो गयी, “शर्मा जी २५० ग्राम मैदा देना”. वो औरत कविता थी. उसने मुझे ऊपर से निचे तक देखा. मेरे कपडे तो वो पहचान गयी थी. मैं अपना चेहरा कविता से छुपाने लगी पर मेरे पैर एक बार फिर डर से कांप रहे थे.
“कविता, तुमने सोनू को सलवार सूट में देखा या नहीं?”, शर्मा अंकल ने हँसते हुए कविता से कहा. “हाय! ये सोनू है? मैं वही सोच रही थी कि यह नयी लड़की कौन आ गयी जो इसके घर से बाहर निकल रही थी! शिखा या मधु की तरह तो नहीं दिख रही थी.”, कविता ने मेरी ओर देखा और मेरे चेहरे से चुन्नी हटाने लगी. मेरा चेहरा अब खुल चूका था. “लो, सोनू ने तो बिंदी और लिपस्टिक भी लगा रखी है”, शर्मा जी फिर हँसने लगे.
उस शर्मिंदगी को मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकी और तुरंत पलटकर दौड़े दौड़े रोते हुए घर भागने लगी. पर उस जल्दी में, मैं एक साइकिल से टकरा गयी जिसमे मेरी ही उम्र का एक लड़का जा रहा था. वो मेरी टक्कर से ज़मीन पर गिर पड़ा. मैं एक पल को रुक गयी. मैं उस लड़के को जानती थी. मैंने उसे अपनी नयी स्कूल में देखा था और वो मेरी ही क्लास में पढता था. पर मैंने कभी उससे बात नहीं की थी. और यह समय भी नहीं था बात करने का. हम दोनों की आँखें एक पल को मिली. वो मुझे इस रूप में पहचान तो नहीं सका होगा. यह सोचकर मैं फिर दौड़कर भाग चली. और वो मुझे देखता रह गया.
मैं दौड़ते दौड़ते बिलखते हुए जैसे ही अपने घर पहुची वहां मेरी हिटलर माँ गीता इंतज़ार कर रही थी. “प्याज कहाँ है?”, गीता ने मुझसे पूछा. “वो मैं.. मैं…”, मैं कुछ न कह सकी और रोती रही. “मैंने पूछा प्याज कहा है?”, गीता ने और कठोर आवाज़ में मुझसे पूछा. मुझे रोते देख शिखा दीदी दौड़ी चली आई. “तुम्हे दिखाई नहीं देता इसकी हालत क्या है. मैं ले आती हूँ तुम्हारे प्याज.”, शिखा दीदी गीता पर चीख उठी. “यदि सोनाली को मेरी छत के निचे रहना है तो उसे वो करना पड़ेगा जो मैं कहूँगी. समझी? यदि वो प्याज नहीं ला सकती तो उसे दो दिन खाना नहीं मिलेगा.” निर्मम गीता ने कहा.
मैं शिखा दीदी को अपनी वजह से मुसीबत में नहीं डालना चाहती थी. “कोई बात नहीं दीदी, मैं प्याज लेकर आती हूँ.”, मैंने आंसू पोंछते हुए कहा. और मैं धीरे धीरे घर के बाहर की ओर कदम बढाने लगी. अब इससे बुरा और क्या हो सकता था? वैसे भी तो अब सब मुझे जान गए थे. मैंने जैसे ही दरवाज़े के बाहर कदम रखा, मुझे शर्मा अंकल दिखाई दिए. इस वक़्त मेरा चेहरा छुपा हुआ नहीं था. उन्होंने मेरी आँखों में आंसूओं की बूंदे देख ली थी. वो थोडा असहज महसूस करने लगे. और उन्होंने कहा, “सोनू, यह तुम्हारे प्याज. तुम मुझे पैसे बाद में दे देना.”, शर्मा अंकल ने मुझे थैली दी और जल्दी ही उलटे पाँव चल दिए. “मुझे जल्दी दूकान वापस जाना है”, बेचारे मुझसे ज्यादा वो इस स्थिति से असहज थे इस वक़्त. शायद उन्होंने गीता की बातें बाहर दरवाज़े से सुन ली थी.
मैं घर के अन्दर थैली लेकर पहुची. शिखा दीदी मुझे दिलासा देने के लिए मेरे पास आ गयी थी. और थोड़ी ही देर में, हमारे घर पर कविता आ चुकी थी. आते ही उसने मेरी माँ से कहा, “नमस्ते जी, आज मैंने सोनू को सलवार सूट पहने देखा. क्या कर रहे है बच्चे? कोई नाटक का हिस्सा है क्या?” मेरी माँ गीता ने कविता की ओर देखा और बोली, “अब बेटी सलवार नहीं तो क्या शर्ट पेंट पहनेगी?” गीता पागल हो चुकी थी. “बेटी?”, कविता के चेहरे पर कई सवाल दिख रहे थे. उसे पता था कि मैं बेटी तो नहीं थी. “तुम्हे और कुछ कहना है कविता? या तुम्हे मेरी बेटी के कपड़ो में ही इंटरेस्ट है?”, गीता ने कविता से पूछा. गीता की आवाज़ में ही इन्सल्ट थी. कविता बेचारी चुपचाप वहां से चल दी. उसे कुछ समझ तो नहीं आया पर गीता के व्यवहार ने उसे बता दिया था कि उसे उसके सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे.
यह तो मेरे आने वाले सालो में होने वाले कई शर्मिंदगी के पलो में बस एक था. मुझे और भी न जाने क्या क्या अनुभव करना बाकी था अभी.
बेनकाब
जब समय ख़राब होता है तो ऐसे लगता है मानो बहुत धीरे धीरे बित रहा है. अब जब शर्मा अंकल और कविता को मेरी सच्चाई पता चल गयी थी, अब बस थोड़े समय की बात थी जब पूरे मोहल्ले में यह खबर फ़ैल जाती. मैं अब भी स्कूल लड़का बन कर जाती थी, पर घर जाकर फिर से लड़की. मेरे घर के आसपास के छोटी उम्र से लेकर मेरी उम्र तक के लड़के मुझ पर हँसते और कमेंट मारते थे. पड़ोस की लड़कियां मुझे देख कर खिलखिलाकर हंसती थी. मेरी निर्मम माँ अब मुझे घर के बाहर के कामो के लिए भी भेजने लगी थी जैसे सब्जियां खरीदने. मेरी शर्मिंदगी का अब अंत नहीं था.
पर इस बावजूद, पड़ोस की कुछ बड़ी औरतें थी जिन्हें मुझ पर रहम आता था. उन्हें मेरे लिए दुःख होता था, और वो अपने बच्चो को मेरा मजाक उड़ाने से रोकती थी. पर धीरे धीरे यह बात फैलते हुए मेरे उन रिश्तेदारों के कानो पर भी पड़ी जो हमें कभी सालो से देखने तक नहीं आये थे. और वह हमारे घर आकर गीता को समझाने की कोशिश करने लगे कि वो मेंरे साथ गलत कर रही है. पर वो उनसे कहती कि सोनू बचपन से ही लड़की बनना चाहती थी, इसलिए वह ऐसा कर रही है. पर किसी को गीता की बात पर यकीन नहीं होता. और जो यह बात गीता से कह देते, वो उन्हें घर से बेईज्ज़त करके बाहर निकाल देती.
मेरी दूसरी बहन मधु, जो मुझसे पहले नफरत किया करती थी क्योंकि मुझे सबका दुलार मिलता था, उसे मेरी हालत देखकर बड़ा मज़ा आता था.. पर कुछ महीनो बाद, उसका दिल भी पिघल गया. पर वो मेरी कुछ मदद न कर सकी क्योंकि गीता अब सनक चुकी थी. उसे तो याद भी नहीं रह गया था कि उसका कोई बेटा भी था. तो मधु ने स्थिति अनुसार जो संभव हुआ वो मेरी मदद करने लगी. वो मुझे अब लड़कियों की तरह चलना, बोलना और हाव-भाव सिखाने लगी थी. और मेरी प्यारी शिखा दीदी हमेशा मेरी चिंता में मग्न रहती. वो मुझे गीता के गुस्से से बचाने की कोशिश करती, पर शिखा दीदी प्यार से भरी हुई कोमल दिल वाली थी, उन्हें चुप कराना गीता को अच्छे से आता था. बेचारी दीदी, न जाने मेरे लिए कितनी बार डांट खा चुकी थी. अब मुझे मेरी स्थिति से कोई बचा नहीं सकता था. अब मुझे लड़कियों का ही जीवन जीना था.
हममें से किसी को समझ नहीं आ रहा था कि गीता आखिर अब यह सब मेरे साथ क्यों कर रही है. उसने पहले तो कहा था कि वो नहीं चाहती थी कि मेरे पिता की तरह मैं किसी लड़की से शादी करके उसकी ज़िन्दगी न ख़राब कर दू. किसी को समझ नहीं आता था कि यदि अब मैं लड़कियों का जीवन व्यतीत करूंगी तो कौनसी लड़की मुझसे शादी करेगी?
करीब एक साल बीतने पर, मेरे बाल लम्बे होकर मेरे कंधे से निचे आ गए थे. मेरा रूप मेरे लम्बे बालो की वजह से स्त्रियोचित हो गया था. अब मैं बाहर जाऊं, तो मेरा चाल-चलन लड़कियों सा था और अब कोई शक भी नहीं करता. पर लम्बे बाल स्कूल में मुसीबत का सबब थे. पर गीता ने किसी तरह मेरे टीचर को समझा दिया था कि उसने भगवन से मन्नत मांगी है और वो मन्नत पूरी होने के बाद ही मेरे बाल काटेगी. और टीचर बेचारे चुप चाप गीता की बात मान गए.
अब घर में मेरी गृहिणी के रूप में ट्रेनिंग पूरी हो चुकी थी. अब गीता मेरी किसी तरह से मदद नहीं करती थी. अब घर की सफाई, साज सज्जा से लेकर खाना बनाने तक की ज़िम्मेदारी मेरी थी. मधु दीदी और शिखा दीदी को मेरी मदद करने से मनाही थी.
मेरे जीवन में जो कुछ चल रहा था उसकी वजह से मेरी पर्सनालिटी अब दब चुकी थी. मैं स्कूल में शर्म से किसी से भी बात नहीं करती थी, मेरे कोई दोस्त भी न थे. मेरी बहने ही मेरी सहेलियां थी. अपनी किस्मत को स्वीकार करते हुए, अब मैं भी लड़कियों वाले शौक से खुश होने लगी थी. अब लिपस्टिक लगाना या मार्किट जाकर दीदी के साथ अपने सलवार से मैच करती चूड़ियां देखने में मुझे मज़ा आने लगा था. हम ज्यादा कुछ खरीद तो नहीं सकते थे आर्थिक परिस्थिति की वजह से, पर हम बहने दुकाने ज़रूर देखने जाती थी. अब मैं धीरे धीरे लड़की की तरह सहज हो चुकी थी. अब उन्ही की तरह मैं हंसती भी थी और लडको को देखकर शर्माती भी थी. स्कूल के कुछ घंटो को छोड़कर, अब मैं वास्तव में सोनाली बन चुकी थी. और मेरी बहनों के लिए भी, अब मैं उनकी प्यारी छोटी बहन थी.
अब जब मेरा सामजिक जीवन लगभग ख़त्म सा था, तो अब मैं पढने में भी ज्यादा ध्यान लगाने लगी थी. शिखा दीदी कहती थी कि अब बस पढाई ही एक रास्ता है जो मुझे गीता से मुक्ति दिलाएगा. मेरे लगातार प्रयास से अब मैं क्लास में सेकंड आने लगी थी. मैं पूरी कोशिश करती थी पर केमिस्ट्री मेरे लिए कठिन विषय था. मेरी बहनों को भी केमिस्ट्री पसंद नहीं था तो वो भी मेरी मदद नहीं कर सकती थी. पैसे की कमी की वजह से ट्यूशन क्लास का तो सवाल ही नहीं था. अब बस एक ही इंसान था जो मेरी मदद कर सकता था. और वो था मेरी क्लास का टापर. पता है कौन था वो? यह वोही लड़का था जो अपनी साइकिल से मुझसे टकराकर गिर गया था जब मैं शर्मा अंकल की दूकान से भागती हुई वापस जा रही थी. अब उससे भी मदद लेने का सवाल नहीं उठता था. मैं बिलकुल नहीं चाहती थी कि स्कूल में किसी को भी मेरी दोहरी ज़िन्दगी के बारे में पता चले. पर मेरी नियति में कुछ और ही लिखा हुआ था.
क्या वो मुझे जानता है?
किसी और दिन की तरह उस दिन भी मैं सुबह सुबह घर में कपडे धो रही थी. और अब छत पर जाकर कपडे सुखाने पहुंची थी. मैं छत पर रस्सी पर अपनी माँ की साड़ी फैलाकर सुखा रही थी तब मैंने देखा कि मेरे घर के सामने गली में एक लड़का साइकिल के साथ खड़ा है. वो अखिल था, मेरी क्लास का टापर. वो जिस तरह मेरी ओर देख रहा था उससे पता चल रहा था कि वो यहाँ बस यूँही नहीं खड़ा था. वो मुझे देखने के लिए ही वहां खड़ा था. क्या वो मेरी जासूसी कर रहा था? क्या वो मेरी सच्चाई जानता था? एक बार फिर ऐसे सवाल मुझे डराने लगे. एक स्कूल ही तो था जहाँ मेरा जीवन कुछ ठीक था. अब वहां भी बात पहुच गयी तो मेरा जीना दूभर हो जाएगा. मैं अखिल की नजरो से बचते हुए गीता की साड़ी के पीछे छुप कर अपने सर को चुन्नी से ढँक झांककर उसे देखने लगी. वो अब भी वहीँ खड़ा था. नीचे गीता मेरा इंतज़ार कर रही थी. अब कोई और चारा नहीं था मुझे कपडे सुखाने ज़रूरी थे. और मैं बिना उसकी ओर देखे कपडे सुखाने लगी, पर वो मेरी ओर घूरता रहा.
“सोनाली!!!”, मेरी माँ की कर्कश आवाज़ आई. वो दिन ब दिन और निर्मम होती जा रही थी. उसकी आवाज़ इतनी तेज़ हो चुकी थी कि आधा मोहल्ला सुन लेता था. “आ रही हूँ, माँ”, मैंने भी आवाज़ दी इससे पहले की गीता की कर्कश आवाज़ फिर से आये.. मैं कपडे सुखाते ही निचे जाने को दौड़ पड़ी.
निचे गीता सोफे पर बैठी हुई थी. उसने मेरी ओर गुस्से से देखा. यकीन ही नहीं होता था कि ये वही औरत थी जो कभी मेरी प्यारी माँ थी. पर अब उसकी आँखों में प्यार की जगह सिर्फ गुस्सा था.
“इतनी देर क्यों लगा दी? कपडे सुखाना हो गए?”, उसने पूछा. “हां, माँ”, मैंने धीरे से कहा.
“मुझे आज दोपहर के खाने में गोभी खाना है. जाकर बाज़ार से ले आ. तेरे पास स्कूल जाने से पहले ज्यादा समय नहीं बचा है.”, गीता ने कहा. स्कूल शुरू होने में अभी दो घंटे थे. इतनी देर में मैं बाज़ार से आकर, खाना बनाकर, स्कूल जाने को तैयार हो सकती थी. एक कुशल गृहिणी की तरह तेज़ हो चुकी थी मैं. मैंने गीता से पैसे लिए और बाहर चल दी. पर तभी मुझे ख्याल आया कि अखिल बाहर खड़ा होगा. मैं उसे देखना नहीं चाहती थी, पर अब परिस्थिति से भाग नहीं सकती थी मैं.
फिर क्या था, जैसे मैं अब तक सिख चुकी थी कि दुनिया जो भी कहे मुझे अपने काम से मतलब रखना है फिर चाहे दुनिया मुझ पर हंसती रहे. मैंने अपनी चुन्नी को एक बार फिर सर पर चढ़ाई और घर से बाहर निकल पड़ी. और अखिल, अब भी अपनी साइकिल से साथ बाहर ही खड़ा था. मैं उससे मुंह मोड़कर बाज़ार की ओर जाने लगी जो की मेरे घर से ५ मिनट की दूरी पर था. मुझे पता था कि अखिल मेरा पीछा कर रहा है.
“सोनाली”, यह अखिल की आवाज़ थी. हे भगवान, वो अब मेरा लड़की वाला नाम भी जान चूका था. आखिर मेरी माँ ने इतनी जोर से आवाज़ जो दी थी. मैं अखिल की आवाज़ को अनसुना करते हुए आगे बढती रही. मुझे एहसास था कि वो अब मेरे काफी करीब होगा पर मैं पीछे मुड़कर न देखी.”
“सोनाली मैडम, कम से कम उस दिन की टक्कर के लिए माफ़ी तो मांग लो! आपको पता है कि उस दिन मेरे पैर पर काफी चोट लगी थी?”, उसने कहा. अब वो अपनी साइकिल मेरे बगल में ही चला रहा था. अब उससे नज़रे मोड़ना संभव नहीं था.
“मेरे रास्ते से दूर हो जाओ, मुझे तुमसे कोइ बात नहीं करनी है!”, मैंने उससे कहा. महीनो की प्रैक्टिस के बाद अब लड़की की आवाज़ निकालने में मैं अब तक दक्ष हो चुकी थी. आखिर अब यही मेरी असली आवाज़ हो गयी थी, और अपनी बहनों से अब मैं इसी आवाज़ में बातें करती थी.
“पता है मैं कब से इस अनजानी लड़की की तलाश में था जिसने मुझे ठोकर मारी थी. मुझे पता था कि वो उस दिन रो रही थी. मैं यहाँ आकर उसे रोज़ ढूंढता था पर मुझे पिछले हफ्ते ही मिली वो.”, उसने कहा.
देखो तो मजनू को! इतने समय से मेरे पीछे पड़ा हुआ था. मैं फिर भी अपने रास्ते चलती रही.
“तुम बहुत खुबसूरत हो सोनाली”, उसने फिर कहा.
खुबसूरत? इसे कैसे पता इसने तो मेरा चेहरा भी ठीक ढंग से अब तक देखा नहीं था. “भागो यहाँ से! तुम्हे सुनाई नहीं देता कि मैं क्या कह रही हूँ?”, मैंने उस लड़की की तरह कहा जिसके पीछे मजनू पड़े होते है. मैंने अपने कदम तेज़ कर दिए कि हमारे बीच दूरी बढ़ जाए. वो शायद अब पीछे ही रुक गया था.
“मैं जानता हूँ तुम कौन हो सोनाली. तुमसे स्कूल में फिर मिलूंगा!”, उसने पीछे से आवाज़ दी.
उसकी आवाज़ सुनते ही मेरे कदम ठिठक गए. “हे भगवान, तो आखिर वो जानता है कि मैं कौन हूँ”, मैंने खुद से कहा. अब तो वो स्कूल में सभी को बता देगा. अब मैं क्या करूं? मैंने सोचा कि उससे माफ़ी मांगकर गिडगिडा लेती हूँ कि वो किसी को सच न बताये. पर मैंने उससे बात करने के लिए जैसे ही मुड़ी, मैंने देखा की वो साइकिल दौडाते हुए मुझसे जा चूका था. और मैं वहां सड़क के बीच अकेले खड़ी खड़ी बस सोचती रह गयी कि आज स्कूल में आगे क्या होगा.
क्रमशः …
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