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बेटी जो थी नहीं - १

शाम हो रही थी. और ट्रेन के बाहर जाते हुए छोटे छोटे गाँव शाम की हलकी रौशनी में बड़े सुन्दर दिख रहे थे. घरो में रौशनी के लिए बल्ब और ट्यूबलाइट अब चालू होने लगी थी. लोग शायद अब अपने अपने घरो को साइकिल और गाड़ियों से वापस हो रहे थे. और मेरा मन उनको निहारने में लगा हुआ था.
“मैडम, टिकट”, तभी मेरा ध्यान टीटी की आवाज़ से टुटा. जैसे ही मैंने पलट कर उसकी तरफ देखा और उसने मुझे ज़रा गौर से देखा तो वो बेचारा थोडा झेंप गया. बेचारे की गलती भी नहीं थी. मेरे कमर तक लम्बे बाल जो एक रबर से बंधे हुए थे उनको देख कर कोई भी कंफ्यूज हो जाता. और फिर मेरा लम्बा खादी का कुरता और वो भी टाइट, उसका कसूर न था कि उसने मुझे लड़की समझ लिया. मेरा कुरता हमेशा से टाइट नहीं था. पिछले ६ महीनो में चिंता के मारे मैं बहुत खाने लगा था और मोटा हो गया था. और मोटापा थोडा मेरे सीने पर भी आ गया था जिससे टाइट कुर्ते में किसी लड़की के सीने के होने का आभास होता था. और तो और मेरे हाथ में एक छोटा लेडीज़ पर्स भी था. अपने बालो को ठीक करने के लिए बड़ी कंघी रखने के लिए लडको का बटुआ मेरे लिए काफी नहीं होता था. मैं पर्स से टिकट निकल कर टीटी को दिखाया और वो टिकट देख कर आगे चला गया.
मेरे सामने बैठे अंकल जी मेरी ओर देख कर मुस्कुराने लगे. मैंने उन्हें अनदेखा कर बाहर देखा तो आगरा शहर बस अब आने ही वाला था, जहाँ मैं अपनी सबसे बड़ी बहन शिखा दीदी से मिलने जा रहा था. स्टेशन आने पर अपना सामान लेकर मैं बाहर निकल आया. दीदी से मिलने को लेकर मैं बड़ा खुश था. वो थी ही इतनी प्यारी.
रिक्शा लेकर जल्दी ही मैं दीदी के घर के सामने था जहाँ मेरी प्यारी बहना जैसे मेरा ही इंतज़ार कर रही थी. लाल साड़ी पहनी हुई और हमेशा की तरह मोहक बड़ी सी मुस्कान उसके चेहरे पर थी. उसके चेहरे की ख़ुशी देख कर ही कोई भी उससे मिलकर खुश हो जाता, मेरा भी खुश होना तो स्वाभाविक था. वो दौड़ कर मुझे अन्दर लेने आई.
“आ गया सोनू! कितना इंतजार कराया तूने”, दीदी मुझसे बोली.
“ट्रेन थोड़ी लेट थी दीदी. क्या करता मैं? वैसे जीजाजी नहीं दिख रहे घर में”, मैंने अन्दर आते हुए पूछा.
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“अरे वो काम के सिलसिले में दुसरे शहर गए है. कल सुबह तक आ जायेंगे.”, दीदी ने जवाब दिया. शिखा दीदी भी थोड़ी मोटी हो गयी थी. पर अब भी उसकी चेहरे की ख़ुशी की वजह से बेहद खुबसूरत लग रही थी वो. जिसका दिल सुन्दर हो, वो हमेशा खुबसूरत लगता है चाहे तन कैसा भी हो.
उस बड़े से घर में बस हम दोनों ही थे. दीदी ने खाना बना रखा था. हम दोनों ने रात का खाना खाया और बहुत सी बातें की. इस दुनिया में मैं सबसे ज्यादा बात किसी से कर सकता था तो वो शिखा दीदी थी. हम दोनों का रिश्ता काफी गहरा था. खाने के बाद भी हम दोनों का बातों का सिलसिला चलता रहा और हम दोनों साथ में सोफे पर बैठे हुए थे.
“सोनू, तेरे बाल कितने रूखे हो गए है. इनका ध्यान नहीं रखता तू?”, शिखा दीदी ने मेरे बालो को छूते हुए कहा. मैंने कुछ न कहा. “रुक, मैं बालो में तेल लगा देती हूँ.”, दीदी अन्दर जाकर आंवला तेल लेकर आई और मुझे निचे बैठा कर मेरे सर पे धीरे धीरे अपनी उँगलियों से मसाज कर तेल लगाने लगी. और मैं उनकी गोद में सर टिका कर बैठ कर आनंद लेने लगा. “दीदी, सचमुच तुम तेल लगाती हो तो गज़ब की शान्ति महसूस होती है.”, मैंने कहा.
दीदी मुस्कुरायी. सच कह रहा हूँ औरतों को एक दुसरे के बालों में तेल लगाने में बड़ा मज़ा आता है. खूब गप्पे मारती है और साथ ही साथ रिलैक्स भी करना हो जाता है. और मेरे बालो को भी औरतों की तरह ख्याल रखने की ज़रुरत थी. मुझे दीदी के हाथो तेल लगवाना हमेशा से पसंद था.
“काश मेरे भी तेरी तरह इतने लम्बे और घने बाल होते.”, दीदी मेरे बालो को निहारते हुए बोली. और फिर मेरे बालो का एक बड़ा सा जुड़ा ऊपर बनाकर बोली, “अच्छा कल अब शैम्पू लगा कर धो लेना. सुन, मैं  तुझे नाइटी लाकर देती हूँ, उसे पहन कर सो जाना. आराम कर ले आज रात अच्छे से.”
“दीदी मेरे पास सोने के लिए कुरता पैजामा है! तुम्हारी नाइटी की ज़रुरत नहीं है.”, मैंने हँसते हुए कहा. मेरा जवाब सुनकर वो चुप रही.
“दीदी सच बता मुझे? मुझे आगरा किस लिए बुलाई हो तुम?”, मैंने पूछा. दीदी को शांत देख कर मुझे अंदेशा होने लगा था कि माजरा क्या है. “दीदी सच बताना. गीता आ रही है क्या?”, मैंने पूछा. “सोनू!”, दीदी ने ज़रा नाराजगी से कहा. “अरे… वो औरत मुझसे नफरत करती है तो मैं क्यों उसकी इज्ज़त करू?”, मैंने भी थोडा गुस्से में जवाब दिया.
“पर ४ साल हो गए तुम दोनों को मिले. और तू कब तक टालेगा इस बात को?”, दीदी ने थोडा गंभीर होकर कहा. कहने की ज़रुरत नहीं है पर मेरे और गीता के सम्बन्ध में खटास थी जो कभी ख़त्म नहीं हो सकती थी.
मैं थोडा गुस्से में उठ खड़ा हुआ यह सोच कर कि अब मैं सोने जाऊँगा. और बात करने का अब मन न था दीदी से. उठकर मैंने न जाने क्यों अपने सर के जुड़े पर हाथ लगाया. और उसको छूते ही कुछ अजीब सा अहसास हुआ. लगा जैसे मैं औरत बन गया हूँ. और दिल में नाइटी पहनने की हसरत जाग गयी. सॉफ्ट और स्मूथ नाइटी पहन कर नींद भी अच्छी आएगी. मैं यह सोच ही रहा था कि मेरे कदम आगे बढ़ते हुए किसी लड़की की नजाकत से चलने लगे और मेरी कमर भी लचकने लगी. उफ्फ! “दीदी, तुम कहती हो तो मैं तुम्हारी नाइटी पहन कर सो जाता हूँ. पर सबसे अच्छी वाली देना!”, मैंने पलटकर मुस्कुराते हुए दीदी से कहा.
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दीदी उत्साह के साथ बेडरूम जाने लगी
शिखा दीदी के चेहरे पर एक बार फिर बड़ी सी मुस्कान आ गयी. “बस अभी देती हूँ”, दीदी ने कहा. और वो मुझे अपने बेडरूम ले जाने लगी. वहां उसने अलमारी से एक मैरून रंग की रात को पहनने वाली मैक्सी निकाली. नयी नयी सी लग रही थी वो. और देख कर ही पता चल रहा था कि सैटिन की महँगी मैक्सी है. मैं उसे लेकर बाथरूम में आ गया. अपने कपडे उतार कर मैंने वो मैक्सी पहन कर खुद को आईने  में देखा. खुद को उस रूप में देख कर यकीन नहीं हुआ. आईने में एक औरत थी. दिल किया तो मैंने अपना जुड़ा खोल कर अपने लम्बे बालो को आज़ाद कर मैं बाथरूम के बाहर आ गया.
मुझे देखते ही शिखा दीदी एक दम ख़ुशी से उछल पड़ी और आकर मुझे गले लगा ली. “आ गयी मेरी छोटी प्यारी बहन, सोनाली! कितनी खुबसूरत लग रही है!”, दीदी ने मेरे चेहरे को छूकर कहा. हाँ, यह भी मेरा एक रूप है. सोनाली, एक लड़की का! सोनाली बनकर एक सुकून भी था और एक चिंता भी. पर दीदी की ख़ुशी देखकर अभी चिंता करने का वक़्त नहीं था.
z1“दीदी, मेरी साड़ियाँ कहाँ रखी है?”, मैंने दीदी से पूछा. “यहीं अलमारी में सबसे ऊपर रखी है.”, दीदी ख़ुशी से बोली. कितनी उत्साहित थी वो मुझे अपनी बहन के रूप में देखकर. उसे ज़रूर तसल्ली मिली होगी कि अब गीता के साथ मेरी इस रूप में मुलाक़ात तो हो पायेगी.
मैंने अलमारी खोलकर अपनी पुरानी ५-६ साड़ियाँ और ब्लाउज निकाल कर बिस्तर पर बैठ कर देखने लगी. सिल्क, मखमली, कॉटन, सभी प्रकार की साड़ियाँ तो थी मेरे पास. कितनी ख़ुशी से शिखा दीदी के साथ कई दुकानों के चक्कर लगा कर खरीदी थी मैंने. जीजाजी को बड़ा चुना लगाती थी मैं अपनी साड़ियों के शौक की वजह से! इतने प्यार से खरीदी थी और अब ४ साल हो गया है इनको पहने! मैं अपने ब्लाउज को खोलकर उलट पलट कर देखने लगी. अब मैं इतनी मोटी हो गयी हूँ कि इनकी सिलाई खोले बगैर अब इन्हें नहीं पहन सकती मैं. अब क्या करूंगी मैं? दीदी से सिलाई खुलवानी पड़ेगी.
“सोनाली, सुन ज़रा वो बगल वाला ड्रावर खोलना.”, दीदी ने कहा. वो अपनी साड़ी उतार रही थी. शायद वो भी अब सोने के लिए कपडे बदल रही थी.
मैंने ड्रावर खोला तो उसमे दर्जनों रंग बिरंगी कई तरह की ब्रा थी. “दीदी! इतनी बड़ी बड़ी ब्रा!”, मैंने अचम्भे में कहा. “अरे पूछ मत तू!  तेरी दीदी मोटी हो गयी है न! तो अब ३६ डीडी साइज़ की ब्रा पहनना पड़ता है.”, दीदी ने ब्लाउज उतारते हुए अपनी पहनी हुई ब्रा की तरफ इशारा करते हुए कहा. सोनाली के रूप में हम बहने एक दूसरे से शर्माती नहीं थी. इसलिए दीदी आराम से कपडे बदल रही थी. बहुत ही सुन्दर ब्रा थी दीदी की. चाहे जो भी हो, दीदी की ब्रा के मामले में चॉइस बहुत बढ़िया थी. उन्हें देखते ही नाज़ुक एहसास होने लगता था. और पहन कर तो चाहे बूब्स हो या न हो, औरत की तरह महसूस किये बगैर नहीं रहा जा सकता था.

“वैसे सोनू, उसमे से २-३ ब्रा निकाल ले. तू भी मोटी हो गयी है. अब तेरा साइज़ भी मेरे साइज़ जितना हो गया होगा. जब तक तू यहाँ है, तेरे काम आएगी.”, दीदी हँसने लगी. झट से दीदी ने भी एक मैक्सी पहनी और मेरे बगल में आकर बैठ गयी. मैं उस ड्रावर से अपने लिए कुछ ब्रा ढूँढने लगी. यहाँ आने से पहले तक मेरा सोनाली बनने का कोई इरादा नहीं था. पर अब इन ब्रा को देख कर जैसे मेरे अन्दर की सोनाली जाग गयी थी. फिर से वो नजाकत महसूस करने को मेरा दिल बेताब होने लगा. ये क्या हो रहा है मेरे साथ? मैं सोच में पड़ गयी.
“सुन, अलमारी से कल के लिए एक साड़ी भी पसंद कर ले. यह तेरी साड़ियाँ तो तू कई बार पहन चुकी है, अब कुछ नया पहनना. मैंने तेरे लिए ७-८ नए ब्लाउज भी सिलाये है. मुझे पता था कि तेरे पुराने ब्लाउज अब फिट नहीं आयेंगे तुझे.”, दीदी बोली. कुछ देर रुक कर मेरी ओर देख कर वो फिर बोली, “वैसे तो तुझे मेरे ब्लाउज भी बढ़िया फिट आयेंगे!” दो औरतें एक दुसरे के कपडे शेयर कर सके, उनके लिए उसमे ही बड़ी ख़ुशी होती थी. हम दोनों तो फिर बहने थी. अपनी बड़ी बहन के कपडे पहन सकू, यह बात मुझे भी ख़ुशी देती थी.
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हमने साथ में मिलकर बहुत सी सुन्दर साड़ियाँ खरीदी थी
दीदी की अलमारी में एक से बढ़कर एक साड़ियाँ थी. डिज़ाइनर और भारी साड़ियाँ भी. मौका ख़ास होता तो ज़रूर पहनती मैं. पर फिलहाल मैंने एक हलकी शिफॉन साड़ी निकाली. सादी पर बहुत सुन्दर और पहनने में आसान भी होगी, मैंने सोचा.
“दीदी, मैं सलवार सूट नहीं पहन सकती क्या कल?”, मैंने दीदी की ओर देखकर पूछा. “नहीं.”, एक शब्द का दीदी का जवाब. गीता को मेरा सलवार सूट पहनना पसंद नहीं आएगा. मुझे पता था. मैं फिर अपने हाथ में साड़ी, उसका मैचिंग ब्लाउज, पेटीकोट और ब्रा पकड़ कर चुपचाप बैठी रही.
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“तू चिंता क्यों करती है सोनू? मैं हूँ न तेरे साथ. सब ठीक होगा.”, शिखा दीदी ने कहा. “चल अब देर हो रही है. तू अब जाकर सो जा.”, शिखा दीदी ने मुझे प्यार से गले लगायी. मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए जैसे मुझे वो सांत्वना दे रही थी कि सब ठीक होगा. गीता को लेकर मेरे मन में चिंता बढती जा रही थी.
फिर भी मैं उठकर दुसरे कमरे में आकर बिस्तर में सोने आ गयी. लाइट बंद थी, देर हो रही थी पर आँखों में नींद नहीं थी. होती भी कैसे? सब पुरानी बातें याद आ रही थी. आखिर कैसे एक लड़का होते हुए मैं एक लड़की के रूप में भी जीवन जी रही थी. मेरी कहानी बड़ी लम्बी है. मैंने कभी सपने में भी नहीं सोची थी कि मुझे लड़की की तरह जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. कम से कम उस दिन तो नहीं जब मैं अपने स्कूल के दिनों में किसी सामान्य लड़के की तरह स्कूल के बाद क्रिकेट खेल कर घर आई थी.

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