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बेटी जो थी नहीं - २

आँखें बंद करती हूँ तो पुरानी यादो की तसवीरें जेहन में दिखने लगती है. कुछ अच्छे पल भी याद आते है कि कैसे मैं और शिखा दीदी हँसते खेलते घंटो बाते किया करती थी, कैसे जीजू के साथ मैं उनकी प्यारी साली बनकर उनको परेशान किया करती थी. पर वो पल भी याद आते है जो उतने अच्छे न थे.. आज भी अच्छे से याद है कैसे बाहर की दुनिया में लड़की बनकर मुझे शर्मिंदगी महसूस करनी पड़ी थी. आज भी याद आता है कि कैसे स्कूल के लड़के मुझे घेर कर छेड़ रहे थे और मुझ पर हँस रहे थे. याद आता है कि कैसे एक लड़के ने मेरे अंगो को मेरी साड़ी के अन्दर हाथ डालकर मुझे छुआ था और… और गीता की दी हुई उलाहना!
मेरे परिवार में मेरी शिखा दीदी के अलावा एक और बड़ी बहन थी मधु जो शिखा दीदी से २ साल छोटी थी.  मेरी माँ की नजरो में मैं एक दुलारा बेटा था. माँ कहती है कि मेरे पिताजी बड़े शराबी थे और कभी परिवार का ध्यान नहीं रखते थे. वो काफी पहले ही हमें छोड़कर चले गए थे और उनकी बस धुंधली तस्वीर है मेरे मन में. मेरी दूसरी बहन मधु और मेरे बीच हमेशा खटपट होती थी. उसका कारण यह था कि मधु को पसंद नहीं था कि मैं माँ का सबसे दुलारा था और मुझे सबसे ज्यादा लाड प्यार मिलता था. हमारे पास एक बड़ा सा पुश्तैनी घर तो था पर खर्च चलाने को ज्यादा पैसे न होते थे. माँ किसी तरह LIC एजेंट बन कर घर घर जाकर लाइफ इन्शुरेंस पालिसी बेच कर थोड़े पैसे कमाती थी जिससे घर का गुज़ारा चलता था. इसके बावजूद भी मैं अच्छे स्कूल में पढता था जबकि मधु और शिखा दीदी सरकारी स्कूल में पढ़ी थी. पढने में कमज़ोर होने के बाद भी मेरी हर इच्छा पूरी होती थी. आखिर माँ को लगता था कि मैं ही उसकी आखिरी उम्मीद हूँ जो पढ़ लिखकर उसका सहारा बनूँगा और इस गरीबी से बाहर निकालूँगा. यही कारण था कि मैं मधु को पसंद न था.

मुझे अच्छे से याद है वो दिन. उस दिन थोडा समय से पहले ही क्रिकेट खेलना ख़त्म कर मैं घर की ओर निकल गया था. घर पहुचते ही मुझे मेरी प्यारी शिखा दीदी दिखाई दी. तब शायद उनकी उम्र १९-२० के करीब रही होगी. उस दिन उन्होंने माँ की दी हुई बनारसी सिल्क साड़ी पहनी थी. जब लड़की नयी नयी साड़ी पहनना सीखती है, तो जो उनमे चमक होती है वही चमक दीदी में भी थी. उस पर से  माँ के जो थोड़े बहुत जेवर थे, आज शिखा दीदी की शोभा बढ़ा रहे थे. आज ख़ास दिन था. आखिर शिखा दीदी को  लड़के वाले शादी के रिश्ते के लिए देखने आ रहे थे.

वैसे भी मेरी हँसमुख दीदी हमेशा से ही खुबसूरत लगती थी पर उस दिन तो ख़ास बात थी उनमे. मुझे तो देखते ही उनके चेहरे की ख़ुशी और बढ़ गई थी.

"सोनू! मेरे भाई. तू आ गया| बता तो आज दीदी कैसी लग रही है?", शिखा दीदी ने कहा. "दीदी, आज तो जो भी लड़का आएगा, तुमको देखते ही मेरा जीजा बनने के लिए हाँ कह देगा. बिलकुल राजकुमारी लग रही हो तुम! वैसे भी मेरी बहन जो हो, अच्छी तो लगोगी ही", मैंने कहा और दीदी को गले लगाने के लिए आगे बढ़ने लगा.

पर तभी माँ ने मुझे रोका और बोली, "पहले हाथ मुंह तो धो ले. गंदे कपड़ो के साथ गले मत लग उसके. और जल्दी से मार्किट से अच्छे समोसे लेकर आजा. लड़के वाले १ घंटे में आते ही होंगे. जल्दी से तैयार हो जाना तू".

मधु दीदी हमेशा की तरह मुझसे थोड़ी उखड़ी हुई थी. मुझे देख कर वो बोली, "देखो तो राजकुमार को अब फुर्सत मिली है. ये समय पर तैयार हो पायेगा?". माँ ने मधु की ओर देखा और बोली, "चुप कर, मधु. उसकी हँसने खेलने की उम्र है. उसको परेशान मत कर."

उसके बाद होना क्या था. कुछ देर में लड़के वाले करीब २० लोग हमारे घर में पधारे और शुरू कर दिए हमारे परिवार की परीक्षा लेना. और ख़ास तौर पर शिखा दीदी की.

"आप लोगो का घर तो बहुत ही बड़ा है, बहनजी. पर आप लोगो ने अच्छे से ख्याल नहीं रखा इसका.", लड़के की माँ ने मेरी माँ से कहा.

"आप चिंता न करे, बहनजी. शादी तय हो जाए तो इस घर को भी जगमगा देंगे हम लोग.", माँ ने कहा.

तभी शिखा दीदी शर्माती हुई सर पर पल्लू रख कर कमरे में एक ट्रे में सबके लिए समोसे लेकर आई. और सबको एक एक प्लेट में समोसे देने लगी.

"आपका घर है, आप जब चाहे इसको जगमगाए. हमें क्या?", लड़के की माँ ने दीदी से समोसे की प्लेट लेते हुए आगे कहा. "वैसे बेटी यह समोसे आपने बनाये है?", उन्होंने दीदी से पूछा. दीदी ने थोडा डर के माँ की ओर देखा. और माँ ने कहा, "अरे नहीं बहनजी. आप लोगो के लिए ख़ास तौर पे यहाँ की फेमस दूकान से मंगवाए है."

"अच्छा? बेटी को कुछ खाना बनाना आता है या नहीं? हमारे घर में १२ सदस्य है. और सभी के लिए सुबह शाम खाना बनाना पड़ेगा इसे.", लड़के की माँ फिर बोली. दोनों माताओं में बातचीत जारी थी, जबकि उनके साथ में आये लोग तो स्वादिष्ट समोसे खाने में मग्न थे. उन्हें कोई परवाह नहीं थी कि बात क्या हो रही है.

"खाना बनाने में तो शिखा दक्ष है. पर जब शिखा नौकरी करेगी तो सुबह शाम तो इतने लोगो का खाना नहीं बना सकेगी न?", माँ ने चिंता में कहा.

"नौकरी? हमें अपने खानदान की नाक कटवानी है क्या? हमारे घर की बहु तो परिवार की सेवा करेगी. बस", उधर से जवाब आया.

बेचारी शिखा दीदी के चेहरे से मनो रौनक चली गयी. माँ ने उनके चेहरे की चिंता को भांप लिया. पर फिर भी यह नाटक एक घंटे तक चलता रहा कि लड़की को क्या क्या करना आता है और क्या नहीं. मेरी शिखा दीदी जो बीकॉम कर रही थी, उसकी पढाई से तो किसी को लेना देना न था. और तो और लड़के को तो दीदी से बात ही नहीं करने दिया गया. और मैं चुपचाप समोसे खाता रहा.

जब सब चले गए तब माँ और मधु दीदी के सामने मैंने शिखा दीदी से हँसते हुए कहा, "दीदी, तैयार हो चूल्हा चौका संभालने के लिए? सब लड़कियों की तरह तुमको भी यही करना पड़ेगा. १२ लोगो के घर में खाना बनाते और कपडे धोते क्या हाल होगा तुम्हारा दीदी! लड़कियों की किस्मत ही ऐसी होती है. चूल्हा चौका और घर संभालना तो लड़की का ही काम है न?"

मैं दिल का बुरा नहीं था पर मैं मामले की गंभीरता को समझ नहीं सकेगा. मुझे लगा कि मैं हल्का मज़ाक कर रहा था. दीदी चुप रही, पर उनकी आँखों ने बहुत कुछ कह दिया था. उनकी आँखों में आंसू की एक बूँद दिखने लगी. मैं अपनी बहन को रुलाना नहीं चाहता था. पर मैं कुछ कह पाता उसके पहले ही माँ बीच में आ गयी.

"बस कर सोनू", माँ ने मुझसे गुस्से में कहा.

"मुझे माफ़ करना बेटी जो मैंने तुम्हारे रिश्ते के लिए ऐसे लोगो से बात की. आज मुझे एहसास हो रहा है कि मैंने अपनी बेटियों के साथ कितनी नाइंसाफी की है. तुम दोनों की पढाई में भी मैंने खर्च नहीं की. पर आज से मैं अपनी गलती सुधार कर रहूंगी. तुम दोनों जितना पढना चाहोगी, उसके लिए जितना खर्च लगेगा, मैं किसी तरह उसके लिए पैसे जमा कर लूंगी. पर तुम दोनों को पढ़ कर खूब आगे बढ़ना है. और शादी के लिए भी तुम अपने लिए खुद लड़का चुनोगी जो तुम्हे अपने बराबर माने. और यही मेरा निर्णय है.", माँ ने दृढ़ता से कहा.

ये तो ख़ुशी की बात थी. और कोई और खुश हो न हो, मधु दीदी ज़रूर खुश थी. जो पढने में मुझे कहीं आगे थी पर उसे सरकारी स्कूल में पढना पड़ा था. मैं शिखा दीदी के पास जाकर उनसे कहना चाहता था कि चलो दीदी अब इस मुसीबत से तुम्हे छुटकारा मिला. पर इससे पहले की मैं अपनी दीदी के लिए खुश हो पाता, मेरी माँ ने मेरी ओर गुस्से से देखा.

"और तू सोनू? लड़कियों का काम सिर्फ चूल्हा चौका संभालना है? तेरी माँ जो इतनी मेहनत करके तुम तीनो का पेट पाल रही है, उसके बाद भी तूने ऐसी बात कह दिया? मुझे शर्म आती है यह सोच कर कि तू मेरा बेटा है. खुद के घर में सब कुछ देखते हुए भी तेरे ऐसे विचार है? आखिर अपने नालायक बाप की संतान है आज तूने साबित कर ही दिया.", माँ गुस्से में बोल रही थी.

"माँ छोडो न. बच्चा है वो.", शिखा दीदी ने माँ को रोकते हुए कहा.

"तू बीच में मत आ शिखा. इसे सबक अब नहीं सिखाया तो बड़ा होकर किसी लड़की की ज़िन्दगी ख़राब करेगा यह भी अपने बाप की तरह. आज से मेरे लिए मेरा बेटा मर चूका है. आज से मेरी ३ बेटियाँ है और सोनू भी मेरी बेटी बन कर रहेगा.", माँ का गुस्सा बढ़ता जा रहा था.

"शिखा और मधु, आज से तुम दोनों खूब मन लगा कर पढ़ोगी. और सोनू मेरी बेटी बनकर मेरी घर में सहायता करेगी. और इसकी पढाई अब सरकारी स्कूल में होगी. वैसे भी पढने में तो कमज़ोर है ही ये. इसके लिए प्राइवेट स्कूल में खर्च करने का कोई तुक नहीं बनता अब.", मैं तो बस समझने की कोशिश करता रहा कि ये हो क्या रहा है.

"मधु, अन्दर जाकर मेरी एक घर में पहनने वाली साड़ी और ब्लाउज लेकर आ और पहना इसे. आज मेरी छोटी बेटी सोनू सीखेगी कि चूल्हा चौका संभालना क्या होता है.", माँ ने मधु से कहा.

मधु मन ही मन खुश तो बहुत हो रही थी पर माँ के गुस्से के सामने वो भी थोड़ी डरी हुई थी. माँ का यह रूप मैंने तो कभी नहीं देखा था. आखिर मैं हमेशा से लाडला जो था.

मधु जल्दी से एक साड़ी लेकर आई, और मुझसे हँसते हुए बोली, "आजा सोनू, चल तुझे साड़ी पहना दू"

"मेरे पास मत आना", मैंने गुस्से में मधु से कहा. उससे लड़ने को तो मैं हमेशा तैयार रहता था.

"मधु, उसके पीछे मत पड़", शिखा दीदी ने मेरा बचाव करने की कोशिश की.

"माँ देखो तो तुम्हारी बेटी मान नहीं रही है.", मधु ने माँ से शिकायत की. उस वक़्त उसकी आँखों और चेहरे में मैंने एक मुस्कान देखी जो मेरे लिए जानी पहचानी थी. वो मुस्कान जो अक्सर इशारा होती थी कि कुछ न कुछ मेरे खिलाफ करने वाली है मधु!  वो फिर माँ से बोली, "वैसे माँ, इस नयी बेटी का कुछ नाम भी तो रखना होगा. सोनाली नाम कैसा रहेगा?", मधु ने मेरा नया नाम भी रख दिया था.

मधु की बात सुनते ही मैं अन्दर ही अन्दर गुस्से में आगबबूला होकर उसकी ओर देखता रहा. पर माँ के गुस्से के डर से मैं मधु के साथ एक कमरे में चला गया जहाँ उसने मुझे पेटीकोट, साड़ी और ब्लाउज पहनाई. और फिर थोड़ी देर बाद मुझे बाहर लेकर आई. सच कहू तो मुझे उस वक़्त कोई शर्मिंदगी का अहसास नहीं था. बचपन से मेरी दो बड़ी बहनों ने मुझे ३-४ बार तो किसी लड़की की तरह सजाया होगा. अपनी बहनों के साथ खेलने कूदने में यह सब तो चलता ही था. पर इस दिन तो मन में गुस्से की ज्वाला भड़क रही थी.

माँ ने मेरी ओर देखा और बोली, "सोनाली. अब किचन में मेरे साथ चल और मेरी खाना बनने में मदद कर. अब से तुझे रोज़ सुबह और शाम ये करना है."

"माँ तुम पागल हो गयी हो क्या? उसे स्कूल भी तो जाना होगा. क्या वहां भी उसे लड़की बनाकर भेजोगी?", शिखा दीदी लगभग रोते हुए माँ से बोली.

"इसे स्कूल में जैसे जाना है जाए. पर स्कूल के बाद घर में आकर ये मेरी बेटी रहेगी. मधु तेरे पुराने सलवार जो छोटे हो गए इसे दे देना. और इसके सभी कपडे किसी गरीब को दान कर देना.", माँ ने कहा. मुझे तो यकीन नहीं हो रहा था कि माँ यह सब कर रही है मेरे साथ. मन में फिर भी एक भरोसा था कि यह सिर्फ आज की बात है. कल जब माँ का गुस्सा शांत हो जायेगा, तब शायद सब पहले की तरह वापस ठीक हो जायेगा.

"सोनाली, तू खड़ी खड़ी मुंह क्या देख रही है? चल किचन में", माँ ने मेरी ओर देख कर कहा. और मैं चुप चाप माँ के पीछे चल दी. और उस दिन से मेरी लड़की के रूप में ज़िन्दगी शुरू हुई. उस दिन से मेरी माँ के लिए बेटा मर चूका था. और वही दिन था जिस दिन से मेरे लिए मेरी माँ, मेरे दिल में मेरी माँ न रही, बल्कि गीतादेवी या सिर्फ गीता हो गयी.

क्रमश:

कहानी तो अब बस शुरू ही हुई है. आगे के भागो में देखिये होता है क्या.











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