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देवदास भाग २

“मोनू बेटा सून ज़रा”, मम्मी ने मुझसे कहा. उनके हाथ में वही अखबार था जिसके पहले पन्ने पर मैं साड़ी पहने किसी हीरोइन की तरह बड़ी सी तस्वीर के साथ शहर भर में प्रसिद्ध हो चूका था.
“हाँ , मम्मी”
मम्मी ने बड़ी ख़ुशी से अखबार की तस्वीर को देखा और बोली, “बेटा, सच कह रही हूँ साड़ी में तू बहुत सुन्दर लग रहा था. तुझे साड़ी में देख कर तो मेरी बेटी की हसरत पूरी हो गयी थी एक पल के लिए. सोच रही हूँ कि कभी एक बार फिर …” और मम्मी जोर से हँसने लगी.
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मेरी साड़ी पहने इंस्पेक्टर से बात करते हुए मेरी तस्वीर शहर भर के अखबारों में थी. रातो रात मैं वो लड़का बन गया था जिसको चोर साड़ी पहना कर गए थे.
“मम्मी, बस भी करो! मैं नहीं पहनने वाला साड़ी!”, मन में फिर से पहनने की इच्छा तो थी पर यूँ ही ऐसे कैसे मान जाता? पर इस बात का फायदा किसी दिन जल्दी ही उठाऊँगा, मैं सोच रहा था. “मैं क्रिकेट खेलने जा रहा हूँ”, मैंने आगे कहा.
“अरे सुन तो! साड़ी नहीं तो सलवार सूट ही सही. बहुत अच्छी सुन्दर लड़की लगेगा तू!”, मम्मी हँसते हँसते कह रही थी पर मैं घर से बाहर साइकिल लेकर ग्राउंड जाने को निकल गया था.

“ऐ मोनू! इधर आ”, मेरी पारो यानी शिखा की आवाज़ थी. उसके घर के सामने मैंने साइकिल पे ब्रेक लगाया.
“क्या हुआ?”, मैंने थोडा गुस्से में कहा. मैं अभी भी उसके सामने ये दिखाना चाहता था कि मैंने साड़ी अपनी मर्ज़ी से नहीं पहना था.
“साड़ी पहनेगा?”, घर की बाउंड्री वाल से लटक कर मुस्कुराती हुई शिखा बोली.
“तू भाग जा यहाँ से. मैं क्रिकेट खेलने जा रहा हूँ”
“सोच ले एक बार. मम्मी ३ घंटे के लिए घर से बाहर है और दिव्या भी स्कूल से ४ घंटे बाद आएगी. फिर ऐसा मौका नहीं मिलेगा. मैं तैयार करूंगी तुझे!”, शिखा बोली.
पता नहीं कैसी लड़की थी ये. मुझसे प्यार भी करती है और मुझे साड़ी भी पहनाना चाहती है! मेरे अन्दर के क्रॉसड्रेसर के लिए तो जैसे सबसे अच्छा दिन था यह, हर कोई मुझे आज साड़ी पहनाने को आतुर था. ऑफर तो अच्छा था. पर जिसे प्यार करता हूँ उसके सामने ऐसे कैसे मान लू कि मेरी इच्छा तो है.
“मैंने तुझे पहले भी कहा था मुझे चोर साड़ी पहना कर गए थे!”, मैंने झूठा विरोध किया.
“हम्म… अभी भी मुझे वोही कहानी सुनाएगा तू? मान क्यों नहीं लेता सच क्या है. यदि तेरी कहानी सच होती तो अब तक यहाँ सोचते खड़े नहीं रहता. तेरा मन है… तू मान क्यों नहीं लेता?”, शिखा नटखट इशारे करते हुए बोली. उफ्फ, उस टाइट कुर्ते में गज़ब ढा रही थी वो! और उसकी मुस्कान… अब मैं मना कैसे करता?
“किसी से कहना मत”, मैंने कहा. “पक्का!”, वो तो ख़ुशी से उछल गयी और घर का गेट खोलकर मुझे खिंच कर अन्दर ले आई.

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टाइट कुर्ती में शिखा कमाल लग रही थी.
“बेचारी मम्मी. जबसे तेरा ये किस्सा हुआ है वो ग्लानी के मारे अब यह साड़ी कभी पहन नहीं पाएगी कहती है”, शिखा वोही साड़ी और ब्लाउज लेकर आई जो मैंने उस रात पहनी थी. मैं थोड़ी शर्म महसूस कर रहा था.
“चल अब शर्ट उतार और पहले ये ब्रा पहन ले”, शिखा बोली.
“ब्रा? ये किसलिए?”, मैंने नादान होने का नाटक करते हुए कहा. मैंने पहले कभी ब्रा नहीं पहना था.
“ज्यादा नाटक मत कर.. तुझे पता है ब्रा क्या सँभालने के लिए पहनते है”, शिखा की आँखों में भी शरारत थी.
“नहीं, सचमुच नहीं पता मुझे.”, मैं भी जिद्दी था.
“इनको संभालने के लिए. अब पहन जल्दी से.”, शिखा ने दुपट्टा ज़रा ऊपर की ओर खिंच कर अपने स्तन दिखाते हुए बोली. उफ्फ… उस काले दुपट्टे के पीछे इतना सुन्दर दृश्य छुपा हुआ था. मेरी तो आँखें चमक गयी उसके क्लीवेज को देख कर!
“पहले तू अपनी ब्रा दिखा. तभी पहनूंगा”, मैं आखिर क्रॉस-ड्रेसर के साथ साथ एक जवान लड़का भी था.

मुझे लगा की शिखा शर्माएगी पर यह लड़की कुछ अलग ही मिटटी की बनी थी. उसने अपने कुर्ते को थोडा निचे खींचते हुए अपने कंधे पर का ब्रा स्ट्रेप दिखाई और झट से फिर वापस ढँक ली. “बस?”, उसकी आँख में शरारत थी.“तू नहीं मानेगा?”, शिखा बोली. “जब तक ब्रा नहीं दिखाएगी, तब तक नहीं”, मैंने कहा.
“अभी कहाँ? मुझे ब्रा के अन्दर की चीज़ भी देखनी है कि आखिर ब्रा में होता क्या है”, मैंने शरारती होते हुए कहा.
“ठीक है.”, शिखा बेझिझक होकर बोली. और फिर उसने अपनी कुर्ती को थोडा और निचे उतार दी. शिखा की बेफिक्री देख कर और उसके सुन्दर स्तन देखकर  मैंने लपक कर उसके खुले हुए स्तन को पकड़ कर दबा दिया. और फिर ये पड़ा तमाचा! फिर भी न जाने क्यों, न शिखा गुस्से में थी और न मैं.
“बहुत हुआ तेरा नाटक. अब जल्दी से साड़ी पहनना शुरू कर इससे पहले की कोई आ जाए.”, शिखा ने कहा.

और मैं अपने गाल को सहलाते हुए ब्रा पहनने की कोशिश करने लगा जो की मुझे आता नहीं था. तो शिखा ने ही मेरी मदद की. शुक्र था कि शिखा मेरे साथ थी साड़ी पहनने में मदद करने के लिए. इसलिए आज घंटो की जगह १५ मिनट में ही साड़ी बांधनी हो गयी. स्वाभाविक रूप से अब मैंने अपने बाल खोल दिए थे. मैं तो बिना मेकअप के ही अब कमाल की लड़की लग रहा था. पर शिखा जितनी नहीं!




अब जो थोड़ी बहुत कमी रह गयी थी, शिखा ने मेकअप और लाल लिपस्टिक लगा कर करके पूरी कर दी. अब तक मेरी झिझक भी ख़तम हो गयी थी और मैं मारे ख़ुशी के लड़की की तरह इठला रहा था. वैसे तो मुझे लड़की की तरह इठलाना नहीं आता था, पर जितना आता था उतना ही सही. शिखा भी ख़ुशी से मेरी ओर देख रही थी.
पर शिखा के मन में क्या था मैं नहीं जानता था. जो आगे होने वाला था मैंने तो सोचा भी नहीं था. शिखा बहुत ही तेज़ लड़की थी न जाने कैसे कब क्या कर बैठे. उस पर मुझे पूरा भरोसा नहीं था. पर उस वक़्त मैं अपनी ख़ुशी में मग्न था. और अचानक ही शिखा ने मुझे अपने पास खिंच लिया और मुझे चूमने लगी और मेरे हाथो को पकड़ कर अपने स्तन को मसलने लगी. मैं तो इससे बेहद आश्चर्य में था. पर मुझे इस बात से शिकायत होती भला? एक तो मैं साड़ी पहनने की हसरत पूरी कर रहा था और जिस लड़की को प्यार करता था, वो मुझे खुद चूम रही थी. शायद शिखा के होरमोन भी मेरी तरह उत्तेजित होते थे. और हम दोनों एक दुसरे को चुमते रहे. दोनों बस दीवाने हो रहे थे एक दुसरे की बांहों में.
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मैं एक बार फिर वही साड़ी पहन कर ख़ुशी से इठला रहा था
आप लोगो को लग रहा होगा कि वाकई में कितनी अच्छी किस्मत पायी है मैंने! पर मेरी फूटी किस्मत याद है आपको? उसी वक़्त दरवाज़े की घंटी बजी. और आवाज़ आई, “मोनू! मोनू!” वो आवाज़ मेरे पापा की थी. और वो लगातार घंटी बजा रहे थे. अब एक बार फिर दोबारा साड़ी में मैं उनके सामने नहीं पकडाना चाहता था. शिखा और मैं होश में आते हुए तुरंत साड़ी में लगी हुई अनगिनत पिन निकालने लगे. यह साड़ी मेरे लिए बड़ी मनहूस थी, २ पल की ख़ुशी के बाद हमेशा शॉक देती थी. मैंने झट से अपने बालो की पोनीटेल बनाया और कपडे बदलकर मेकअप धोने लगा. सब कुछ निकल गया पर लिपस्टिक ढंग से न उतरी! पापा की आवाज़ तेज़ होती जा रही थी, घंटी तेजी से बज रही थी तो अब दरवाज़ा खोलना ज़रुरी था. कम से कम अब मेकअप में नहीं था मैं. और कपडे भी लडको वाले थे.
दरवाज़ा खोलते ही पापा ने मुझे देखा और आगबबूला हो गए. “तुरंत घर चल”, पापा ने कहा. मैं साइकिल लेकर चलने लगा.
“तुझे कोई शर्म लिहाज़ है? गुप्ता आंटी को पता चला तो कैसा लगेगा? मैं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाऊँगा”, पापा ने कहा. गुप्ता आंटी की बड़ी फ़िक्र रहती है पापा को. कभी बेचारे गुप्ता अंकल के बारे में नहीं सोचते!
“ऐसा किया क्या है मैंने?”, मैंने विरोध किया.
“सब दिख रहा है तेरे होंठो पे लाल रंग से! अभी तुम दोनों की उम्र ही क्या है. अभी से ये सब? अब से तुम और शिखा कभी अकेले में नहीं मिलोगे!”, पापा ने सर पर एक रपट कर लगते हुए कहा. कसम से क्या दिन था वो. अब और एक तमाचा पड़ा आज तो सनक जाऊँगा मैं.
पर मैं मन ही मन हँस रहा था कि एक बार फिर क्रॉस-ड्रेसिंग में पकडाने से मैं बच गया. पापा को लग रहा था कि शिखा और मैं किस कर रहे थे. हम कर भी रहे थे. पर चलो मेरी क्रोस-ड्रेसिंग तो नहीं पकडाई! पर पापा ने मेरे अगले कुछ दिनों तक जीना दूभर कर दिया. मेरी हर बात पर नज़र रखने लगे कि मैं कब कहाँ जा रहा हूँ.
z1.pngलेकिन मेरा और शिखा का प्यार तो बस अभी अभी शुरू हुआ था. ऐसे कैसे हम जाने देते? सोचा की स्कूल के बाद बाहर कहीं मिला करेंगे. पर ये छोटे शहर में जैसे हर जगह कोई न कोई जान पहचान का होता ही था. अब बस एक ही रास्ता था. पब्लिक पार्क में मिलने का. हम दोनों अपने अपने स्कूल से भागकर या स्कूल के बाद पार्क में अलग अलग रास्तो से अन्दर जाकर झाड़ियों में छुपकर मिलते. टीनएज में जवानी के जोश में मैं कई बार शिखा को चूमना शुरू कर देता या फिर उसके वक्ष पर हाथ रख देता, और वो तुरंत मुझे एक प्यार भरा थप्पड़ लगा देती. पर फिर कुछ देर बाद खुद ही मुझे चूमने लगती और मेरे हाथ अपने सीने पर रख देती. जैसे शुरुआत हमेशा वो खुद करना चाहती थी. उस लड़की को समझना बड़ा मुश्किल था. पर प्यार करती थी मुझसे. लडकियां कैसी भी हो, यूँ ही किसी को भी हाथ लगाने नहीं देती. मैं उसका प्यार था इसलिए मुझे मौका मिलता था. पर थप्पड़ खाने का सिलसिला चलता ही रहा. हमेशा सोचता था कि अब थप्पड़ नहीं खाऊँगा पर साला खुद पे काबू ही नहीं रहता था.

मेरे जीवन की पनौती अभी ख़तम नहीं हुई थी. हाई स्कूल अब ख़तम हो रहा था. और मेरे पूजनीय पिताजी मेरे जीवन को और कठिन बनाने को उत्सुक थे.
“तुम दिल्ली पढने जाओगे”, पापा ने घर में जोर शोर से घोषणा की.
“पर पापा मैं इसी शहर में क्यों नहीं पढ़ सकता?”, मैं यहीं पढना चाहता था क्योंकि शिखा इसी शहर में कॉलेज जाने वाली थी.
“बेटा, तेरे भविष्य की ही सोच रहे है हम लोग”, मम्मी भी आज मेरे खिलाफ थी.
और कुछ दिन बाद मेरे जाने का समय भी आ गया. शिखा ने जाने से पहले मुझे वही मनहूस साड़ी लाकर दी कि कभी मन करे तो पहन लू. पर मैंने सोच लिया था कि उस साड़ी को तो दोबारा कभी नहीं पहनूंगा! पर मेरे सोचने से क्या होता है? कॉलेज के पहले दिन ही रैगिंग में सीनियर ने मेरे बक्से में वो साड़ी देख ली, और मुझे मेरे प्यार की निशानी पहनने को मजबूर कर पूरे हॉस्टल में घुमाया! खैर, रैगिंग तो जल्दी ही ख़तम हो गयी पर मैं कॉलेज में मोना डार्लिंग नाम से मशहूर हो गया. अपने शहर में तो पहले ही अखबार की खबर में मैं मशहूर था अब यहाँ भी!

शिखा और मैं फोन से एक दुसरे से जुड़े हुए थे. उस लड़की को मैं अब तक समझ नहीं पाया था. कभी कभी मुझे उकसाने वाली रोमांटिक फोटो भी भेजती थी वो. और मैं बस घर जाकर उससे मिलने को बेताब रहता. कॉलेज जाकर और हॉट होती जा रही थी वो. उसकी हॉटनेस से ये दूरी अब बर्दाश्त के बाहर हो रही थी.
कॉलेज के २ साल बाद की छुट्टी में जब मैं घर आया तो गुप्ता आंटी का घर नए पेंट के साथ चमक रहा था. मम्मी ने खबर दी कि शिखा की शादी तय हो गयी है. दिल्ली में ही किसी बिज़नसमैन से. बाप दादा का बिज़नस चलाता है और हमसे उम्र में ६ साल बड़ा भी था वो.
ज़ाहिर था कि शिखा मुझसे मिलने तो आती ही, और वो आई भी.
“मोनू. कैसा है?”, शिखा आते ही ऐसे चहकने लगी जैसे की कोई बात ही न हुई हो.
“तुझे क्या करना है मैं कैसा हूँ?”, मैं गुस्से में था.
“तो तुझे पता चल गया … “, शिखा ने सँभलते हुए कहा. आज तो गुलाबी सूट में और कितनी ही सुन्दर लग रही थी वो. बड़ी हो गयी थी इन दो सालो में.
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सुन्दर गुलाबी सूट पहन कर शिखा मुझसे मिलने आई थी.
“पता है शादी के बाद मैं तेरे शहर दिल्ली आ रही हूँ! … मेरे होने वाले पतिदेव के पास खुद की मर्सिडीज़ भी है. तुझसे मिलने मर्सिडीज़ कार से आया करूंगी मैं!”, वो अभी भी मुस्कुराते हुए बात कर रही थी.
“तू दो साल रुक नहीं सकती थी? कॉलेज के बाद मैं भी अच्छी नौकरी करता और अच्छी कार खरीद लेता तेरे लिए”
“मर्सिडीज़ तो नहीं ले सकता न तब भी? मेरी शादी में आएगा न तू?”, उसने कहा.
“क्यों?”
“क्योंकि तू मेरा दोस्त है!”, वो हँसते हुए बोली.
“दुनिया का मामा बनने का ठेका नहीं लिया है मैंने”, मैं बोला.
“मामा? अरे… शादी तय हुई है मेरी! प्रेग्नेंट नहीं हुई हूँ!”, शिखा बदतमीजी से हँसने लगी.
“निकल जा यहाँ से … और अपनी शक्ल मत दिखाना मुझे कभी. एक मर्सिडीज़ के लिए…”, मैंने गुस्से में कहा.
“पर मोनू? तू हमारी दोस्ती ऐसे तोड़ देगा?”, वो मुंह मोड़ कर चली गयी. शायद रो भी रही थी. पर मेरा दिल तो उसने तोडा था न?
तो इस तरह मेरे देवदास बनने की शुरुआत हुई. कॉलेज के बचे २ साल और आगे की ज़िन्दगी में, मैं और शराब एक दुसरे के सहारा बन गए. और दिल्ली में ही नौकरी लगने पर क्रोस-ड्रेसिंग भी मेरा इमोशनल सहारा थी. अब तो क्रोस-ड्रेस करने के बाद मैं अपने आपको चंद्रमुखी नाम से पुकारता था और चंद्रमुखी मुझे हमेशा ख़ुशी देती. मैं मोनू देवदास, मेरे अन्दर की औरत चंद्रमुखी और मेरी पारो शिखा जो उसी शहर में रहती थी. और मेरी पारो इतनी आसानी से मेरा पीछा नहीं छोड़ने वाली थी!
क्रमशः

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