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बेटी जो थी नहीं - ४

स्कूल का वो दिन

मैं सोना चाहती हूँ पर अब भी नींद नहीं आ रही है. बिस्तर पे करवट बदलते रात के ११ बज चुके है. और आँखों में अब भी स्कूल का वो दिन याद आ रहा है जिस दिन मुझे पता चला था कि अखिल मेरे दोहरे जीवन का  राज़ जान चूका है. बड़ी बेचैन थी उस दिन मैं. होती भी क्यों नहीं? अखिल ने यदि सभी को मेरे बारे में बता दिया तो स्कूल में भी मेरा जीना मुश्किल हो जाता.
उस दिन सड़क पर बीच में अकेले खड़ी खड़ी मैं अखिल को जाते हुए देखते रह गयी. अब मेरे पास बस एक ही रास्ता बचा था यह देखने का कि अब स्कूल में आगे क्या होता है. मैं घर से गीता के लिए खाना बनाने के बाद कपडे बदल कर लड़के के रूप में स्कूल के लिए निकल गयी. नर्वस तो मैं बहुत थी. सोच रही थी कि आखिर क्यों अपनी बेईज्ज़ती कराने स्कूल जा रही हूँ मैं? मेरे मन में बस यही विचार आ रहा था कि स्कूल पहुँचते ही अखिल अपने दोस्तों के साथ मेरा मज़ाक उड़ाने के लिए तैयार होगा. इसी सोच में मैं स्कूल पहुँच कर अपने क्लास की ओर बढ़ने लगी कि कभी भी मुझ पर हँसने वाले लोग मिल सकते है मुझे. क्लास की ओर बढ़ता एक एक कदम किसी टार्चर से कम नहीं था.
पर जब क्लास पहुंची तो वो दिन भी किसी दुसरे दिन से अलग नहीं था. न कोई हँसी थी और न ही कोई मुझे घूर रहा था. मैं अखिल को देखना नहीं चाहती थी पर वो सबसे आगे बेंच में बैठता था. उससे नज़रे चुराकर मैं चुपचाप अपने बेंच की ओर जाने लगी. पर उसकी चेहरे की मुस्कान को अनदेखा नहीं कर सकी मैं. उसकी मुस्कान शैतानी न होकर एक प्यार भरी मुस्कान थी.  मैं एक लड़के के यूनिफार्म में थी फिर भी अन्दर से किसी लड़की की तरह शर्मीलापन महसूस कर रही थी मैं उसकी मुस्कान देख कर. मन तो किया कि अपनी उँगलियों से अपने बालों को ठीक करते हुए मैं भी उसे एक मुस्कान दे दू. पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लग रहा था. पर अच्छा हुआ मैंने कोई मुर्खता नहीं की. मुझे अखिल पर अब भी भरोसा नहीं था.  दिल में दिन भर बेचैनी थी कि न जाने कब अखिल दूसरो को मेरे बारे में बता देगा. पर ऐसा कुछ न हुआ.
जब पूरा दिन बीत गया, और मैं घर वापस जाने के लिए निकलने लगी, तब वो मेरे पास आया और मुझसे कहा, “तुम्हारा राज़ मेरे पास सुरक्षित है. मैं जल्दी ही मिलूंगा तुमसे.” और बस इतना कहकर वो चल दिया. मैं उसे धन्यवाद कहना चाहती थी किसी को मेरे बारे में न बताने के लिए पर उसने मौका नहीं दिया. “जल्दी ही मिलूंगा.”, उसके ये शब्द कुछ नयी भावनाएं जगा रहे थे मन में. पर अब दिल को तसल्ली थी, और मैं घर पहुच कर फिर से सोनाली बनकर अपने घर के कामो में लग गयी. घर का काम निपटाकर मैं अपने कमरे में पढाई करने आ गयी. केमिस्ट्री जो पढनी थी! केमिस्ट्री में अच्छे अंक लाये बगैर आगे अच्छे कॉलेज में जाना संभव नहीं था. और यदि मैं अच्छे कॉलेज नहीं गयी तो गीता की इस दुनिया से मुझे छुटकारा नहीं मिलता मुझे.

वो शाम

मैं उस शाम को अपने कमरे में पढ़ रही थी जब दरवाज़े पर घंटी सुनाई दी. मैंने बाहर झांककर देखा तो दरवाज़े पर अखिल खड़ा था. “हे भगवान! अब क्या करूंगी मैं? यह तो घर तक आ गया!”, मैं सोचने लगी.
मेरे कुछ करने के पहले ही मेरी माँ गीता दरवाज़ा खोल चुकी थी. मेरी माँ का बर्ताव अब किसी के साथ भी अच्छा नहीं होता था. और अखिल भी उसे थोडा बहुत भुगतने वाला था.
“क्या है? कौन हो तुम?”, गीता ने बदतमीज़ी से अखिल से पूछा.
“जी, नमस्ते. मैं अखिल हूँ और सोनाली की क्लास में पढता हूँ. क्या सोनाली घर पर है?”, अखिल ने कहा.
“क्या काम है सोनाली से?”, गीता ने अभद्रता के साथ उससे पूछा.
“जी. मैं उसके साथ होमवर्क करने आया हूँ. मेरी गणित थोड़ी वीक है तो वो मुझे मदद कर देगी, और मैं उसकी केमिस्ट्री में मदद कर दूंगा.”, अखिल ने निडर होकर कहा. पता नहीं उसमे इतनी हिम्मत कहाँ से आई थी. और उसे मेरी केमिस्ट्री के बारे में कैसे पता था? जहाँ तक मुझे पता है उसका गणित कमज़ोर नहीं हो सकता. क्लास का टॉपर जो था वो.
“तुम मदद करोगे उसकी पढाई में?”, गीता ने उसे घूरकर देखा और आगे बोली, “ठीक है. सोनाली ऊपर अपने कमरे में है. इस सीढ़ी से ऊपर चले जाओ”
और अखिल दौड़ा दौड़ा ऊपर चला आया. मैं उन दोनों के बीच की पूरी बातें सुन चुकी थी. और अखिल को देखते ही कुछ अजीब सी शर्म महसूस होने लगी. उसे देखते ही न जाने क्यों किसी लड़की की तरह मैंने अपने दुपट्टे से अपने सीने को ढँक दिया. उसके सामने तो जैसे मैं मन से लड़की बन जाती थी. मुझे इस तरह शर्माते देख वो मेरे सामने आकर मुस्कुराने लगा. “हाय सोनाली!”, उसने मुस्कुराते हुए कहा.
“क्यों आये हो तुम यहाँ? क्यों मेरे पीछे पड़े हो?”, मैंने गुस्सा दिखाते हुए कहा जबकि दिल में कुछ और ही चल रहा था.
“अरे नाराज़ क्यों होती हो? मैं तो तुम्हे केमिस्ट्री में हेल्प करने आया हूँ!”, वो हँसने लगा.
“मुझे तुम पर भरोसा नहीं है.”, मैंने उससे कहा.
“ठीक है. मैं तो तुम्हारे मुंह से उस दिन के लिए सॉरी सुनने आया हूँ जिस दिन तुमने मुझे साइकिल से गिराया था.”
“तुम जाओ यहाँ से! मैं कोई सॉरी वगेरह नहीं बोलूंगी”, मैंने लड़की की तरह अदाएं दिखाते हुए कहा. “कोई लड़की इतनी आसानी से सॉरी कहती है भला? वो भी उस लड़के से जिसके लिए उसके दिल में कुछ चल रहा हो?”, मैं मन ही मन सोचने लगी. “दिल में कुछ चल रहा हो?” खुद का यह विचार सुनकर मैं खुद ही कंफ्यूज हो रही थी.
“ठीक है तो फिर होमवर्क ही कर लेते है साथ में”, अखिल ने कहा और मेरा हाथ ज़बरदस्ती पकड़कर मुझे कमरे के अन्दर ले गया.
मेरे चेहरे पर अब तक मैं उसे गुस्सा ही दिखा रही थी. और एक टेबल पर आमने सामने बैठकर हम बुक खोलकर होमवर्क करने लगे. वो सचमुच एक प्यारा इंसान था. पता नहीं कैसे पर हम दोनों जल्दी ही दिल खोलकर बाते करने लगे और वो मुझे प्यार से केमिस्ट्री के होमवर्क में मेरी मदद करने लगा. बीच बीच में हमारी नज़रे मिलती, वो मुस्कुराता और मैं शर्मा जाती. आखिर १ घंटा बीत जाने पर मैंने उससे कहा, “अखिल मुझे उस दिन के लिए माफ़ कर देना.” आखिर में मैंने माफ़ी मांग ही ली और वो बस मुस्कुरा दिया.
“अच्छा सुनो. मुझे अब शाम का खाना बनाने की तयारी करनी है. अब तुम्हे जाना होगा.”, मैंने फिर कहा. मेरा दिल तो नहीं था उसे जाने कहने का. पर वो एक समझदार लड़का था. उसने मेरा एक हाथ अपने दोनों हाथो के बीच पकड़ा और मुझसे कहा, “मैं कल फिर मिलूंगा, सोनाली” और वो चुपचाप पलट कर चला गया. और मैं उसे जाते देखते रह गयी. यह क्या हो रहा था मेरे दिल में? मुझे खुद को समझ नहीं आ रहा था. शायद इसकी वजह यह थी कि अखिल दुनिया में अकेला लड़का था जिसने मेरी सच्चाई जानते हुए भी मेरा मज़ाक नहीं उड़ाया था, और मुझे एक लड़की के रूप में स्वीकार करके इज्ज़त से पेश आ रहा था. काश कि वो लड़की की जगह मुझे सोनू, एक लड़के के रूप में ट्रीट करता.  पर दुनिया की हँसी झेलते झेलते अब कोई मुझे कैसे भी स्वीकार कर ले, यही मेरे लिए बड़ी बात थी.
अखिल के जाने के बाद कमरे में मधु दीदी और शिखा दीदी आई. “ओहो, कौन था यह लड़का जो मेरी बहन से मिलने घर तक आ गया?”, मधु दीदी ने लगभग छेड़ते हुए मुझसे कहा. “कोई नहीं दीदी, मेरी क्लास में पढता है. मेरी हेल्प करने आया था केमिस्ट्री में.”, मैंने जवाब दिया. “जो भी बड़ा हैण्डसम लड़का है! क्या चल रहा है तुम दोनों के बीच?”, मधु दीदी ने फिर हँसते हुए कहा. “दीदी, आप भी न!!”, मैंने कहते कहते शरमाकर अपनी नज़रे झुका ली. “शिखा दीदी, देखो तो हमारी छोटी बहन किस तरह से शर्मा रही है उस लड़के के बारे में बात करते. लगता है सोनाली को प्यार हो रहा है!”, मधु दीदी ने शिखा दीदी से कहा और खिलखिलाकर हँसने लगी.
“चुप कर मधु.”, शिखा दीदी ने मधु को चुप करा दिया. शिखा दीदी थोड़ी चिंतित लग रही थी. मुझे पता था कि उनके दिल में यह चिंता थी कि उनका छोटा भाई सोनू कहीं सचमुच सोनाली न बन जाए. वह तो पूरी कोशिश कर रही थी कि मुझे फिर से सोनू बनकर जीने का मौका मिले. दीदी को चिंता थी कि मैं कहीं एक अधूरी औरत बनकर न रह जाऊं जीवन भर.
“अरे शिखा!!!! ज़रा जल्दी निचे आना.”, निचे के कमरे से गीता की आवाज़ आई. “आई माँ”, शिखा दीदी ने जवाब दिया. “और सुन, अपनी दोनों बहनों को भी निचे बुला ला.”, गीता ने फिर जोर से कहा. हम तीनो दौड़ते हुए निचे पहुंची. क्योंकि कोई भी हमारी माँ को एक छोटा सा भी कारण नहीं देना चाहता था गुस्सा होने का.
“क्या बात है माँ?”, शिखा दीदी ने पूछा.
“अरे देख तो तेरे लिए ये चिट्ठी आई है”, गीता ने एक चिट्ठी पकडाते हुए शिखा दीदी से कहा. शिखा दीदी खोलकर चिट्ठी पढने लगी.
“माँ! मुझे आगरा शहर में एक कंपनी में अकाउंटेंट की नौकरी मिल गई है!”, शिखा दीदी ने चहकते हुए कहा.
“अरे वाह! यह तो ख़ुशी की खबर है दीदी!”, मैं ख़ुशी से उछल पड़ी.
“हाँ! दीदी अब तो तुम अपनी एम-कॉम की डिग्री की पढाई भी वहां के कॉलेज से कर सकती हो!”, मधु दीदी ने कहा.
“मुझे १ हफ्ते में नौकरी ज्वाइन करने के लिए बुलाया गया है!”, शिखा दीदी ने ख़ुशी से मेरी ओर देखते हुए कहा. पर जल्दी ही उनके चेहरे की ख़ुशी गायब भी हो गयी. क्योंकि यदि शिखा दीदी आगरा चली गयी तो मुझे गीता के कहर से बचाने वाला कोई नहीं रहेगा.
फिर भी हमने इस ख़ुशी के पल को सेलिब्रेट किया. और रात को शिखा दीदी और मेरे बीच बातचीत हुई. दीदी मुझे समझा रही थी कि क्यों मुझे पढाई पर ध्यान देना चाहिए. दीदी ने मुझसे कहा कि जब शहर में उनकी तनख्वाह बढ़ जाएगी और मेरे स्कूल की पढाई ख़त्म हो जायेगी तब वो मुझे अपने साथ कॉलेज के लिए आगरा ले चलेगी. हम दोनों ही मिलकर उस दिन के सपने देखने लगी जब मैं गीता से आज़ाद हो जाऊंगी.

बढ़ता प्यार

शिखा दीदी आगरा जा चुकी थी. उनकी नयी नौकरी में उनकी तनख्वाह बस इतनी थी कि थोड़ी बहुत बचत करके वो पैसे घर भेज देती थी. अब घर का गुज़ारा चलना थोडा सा आसान हो गया था. घर में अब एक फोन भी आ गया था जिस पर दीदी हमें हफ्ते में एक बार फोन किया करती थी और आगरा शहर के बारे में बताती थी.
और मैं भी सोनाली बनकर जीने की आदि हो चुकी थी. गीता का गुस्सा मुझपर अब भी कभी भी फुट पड़ता था. पर अब मैं ११वी में पढ़ रही थी. बस एक-दो साल और फिर मैं गीता से दूर किसी शहर में कॉलेज की पढाई करूंगी, इसी उम्मीद में अपने दिन काट रही थी मैं. जैसे भी दिन थे, अब आदत हो चुकी थी इनकी. अब लगने लगा था कि इससे बुरा तो कुछ नहीं हो सकता था मेरे साथ.
पर मैं गलत थी. एक दिन मैं स्कूल पहुंची तो वहां मेरे क्लास के लडको ने झूंड में मुझे घेर लिए. “अरे देखो तो सोनाली डार्लिंग आई है”, एक लड़के ने कहा और सभी जोर जोर से हँसने लगे. एक लड़के ने मेरे लम्बे बालो को पकड़ कर खींचकर कहा, “अरे सोनाली, तुम्हे तो चोटी बनाकर आना चाहिए!” तो किसी ने कहा, “सोनाली तेरा कोई बॉयफ्रेंड है क्या?” सभी लड़के अभद्र शब्दों को इस्तेमाल करके, जिन्हें मैं कहना भी नहीं चाहती,  मेरा मज़ाक उड़ा रहे थे. ज़रूर किसी को मेरे बारे में पता चल गया था. मेरी आँखों में तुरंत आंसू आ गए. “प्लीज़ मुझे जाने दो”, मैं हाथ जोड़कर उन लडको से विनती की. पर कोई यह मौका कहाँ छोड़ने वाला था. “अरे ऐसे कैसे जाने दे जानेमन”, किसी ने कहा और कुछ लड़के मुझे इधर उधर छूते हुए मुझे खींचने लगे. अब मेरे मन में गुस्सा भी बढ़ रहा था. “छोडो मुझे वरना मारूंगी!”, मैं जोर से चीख उठी. पहली बार स्कूल में एक लड़की की तरह बोली थी मैं. “मारोगी? ज़रा अपनी प्यारी मार तो दिखाओ हमें.”, एक बार फिर सभी हँस रहे थे. तभी जिसने यह कहा था उसके चेहरे पर एक घूंसा पड़ा. वो घूँसा अखिल ने मारा था. “यदि किसी को कुछ और कहना है तो मुझसे बोलो सालो. एक एक को यहीं गाड़ दूंगा.”, अखिल गुस्से में भड़क रहा था. वो मेरे सामने आकर मुझे बचाने लगा. अखिल के तेवर देखकर किसी और की हिम्मत नहीं हुई. “चलो यहाँ से अखिल पागल हो गया है.”, एक ने कहा और सब चल दिए.
अखिल ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे पकड़ा और कहा, “तुम चिंता मत करो. मैं हूँ तुम्हारे लिए.” और मैं बस उसकी ओर देखती रह गयी. उसने मुझे अपने साथ क्लास के अन्दर ले गया और मुझे लडको से दूर लड़कियों के साथ बैठाने ले गया. क्लास की सभी लड़कियों को भी मेरे बारे में पता चल गया था. सभी मेरी ओर देख रही थी. उनमे से एक नियति थी जो मेरे पास आई और बोली, “सोनाली, तुम मेरे साथ बैठोगी आज से.” और नियति ने मुझे गले लगा लिया.
अब तो स्कूल में भी मेरे लिए जीना मुश्किल होता पर नियति और अखिल मेरे साथ हमेशा रहते थे मेरा साथ देने के लिए. उस दिन के बाद से तो अखिल के लिए मेरे दिल में बहुत सम्मान बढ़ गया था. और शायद प्यार भी?
स्कूल के बाद अखिल अब रोज़ मेरे घर आता था. हम लोग हँसते मुस्कुराते होमवर्क करते. उसके साथ मैं एक आज़ाद पंछी बन चुकी थी. वो कभी मेरा हाथ पकड़ता और कभी कभी मुझे गले भी लगाता, और हर बार मैं उसकी पकड़ से बाहर आ जाती. पर वो कभी मेरे साथ ज़बरदस्ती नहीं करता. मुझे उसके साथ समय बिताना अच्छा लगता था. और उसके आने के पहले मैं अब थोडा सज-संवर भी लेती थी. हमने जो शब्दों में नहीं कहा था वो हमारी आँखें एक दुसरे से कह देती थी. हम दोनों जानते थे कि हमें एक दुसरे से प्यार हो रहा है. इसके बावजूद कि मैं पूरी तरह लड़की नहीं थी और मेरे व्यवहार में टॉम-बॉय वाले गुण भी थे, फिर भी वो मुझे हमेशा प्यार से ट्रीट करता था.
और स्कूल में नियति मेरी अच्छी सहेली बन गयी थी. भले स्कूल में मैं लडको के यूनिफार्म में होती थी पर नियति भी मुझे सोनाली कहकर बुलाती थी. किसी दूसरी लड़कियों की तरह खूब बातें करते थे हम दोनों. बालो की नयी स्टाइल से लेकर फैशन तक… सब कुछ. पर नियति के पास कुछ ख़ास था जो मेरे पास नहीं था. उसके पास स्तन थे और ब्रा थी. मेरे दिल में भी उसकी तरह फिगर की दिखने की चाहत बढ़ने लगी थी इसलिए मैंने शिखा दीदी से चिट्ठी लिखकर ब्रा मंगवाई थी!

शिखा दीदी की छुट्टी

कुछ महीनो के बाद शिखा दीदी ६ दिन की छुट्टी में घर आई थी. आखिर दिवाली जो शुरू हो रही थी! दीदी ने अपनी बचत से हम सभी के लिए कुछ गिफ्ट लेकर आई थी. मैं तो अपनी प्यारी दीदी से मिलने को उतावली थी. और वो भी. माँ और मधु दीदी से मिलने के बाद वो मुझे लेकर मेरे कमरे में आई.
“दीदी मेरा गिफ्ट कहाँ है?”, मैंने दीदी से चहकते हुए पूछा. “अच्छा मैडम गिफ्ट के लिए बड़ी उतावली है!”, शिखा दीदी ने कहा. मैंने अपने कंधे से फिसलते हुए दुपट्टे को सँभालते हुए दीदी का हाथ पकड़ा और बोली, “दीदी, मेरा गिफ्ट दो न!” वो हँस दी और अपने बैग से सुन्दर २ ब्रा निकाल कर दी. और साथ में था एक फोम का बना हुआ ब्रेस्टफॉर्म! मेरी तो आँखें ख़ुशी से चमक उठी. अब मुझे भी मनचाहा फिगर मिलेगा मेरी क्लास की दूसरी लड़कियों की तरह. जाने अनजाने मुझे लड़कियों से जलन होती थी. कुछ कमी महसूस होती थी मुझे स्तनों के बगैर. अब तो दिल से लड़की बन चुकी थी मैं! “अच्छा तुझे ब्रा पहनना आता भी है?”, दीदी ने मुझसे पूछा. मैंने ना में सर हिला दिया. “ठीक है, अपनी कुर्ती उतार. मैं बताती हूँ.”, दीदी ने कहा.
और फिर दीदी ने मुझे ब्रा पहनना सिखाया और ब्रा पहना कर उसमे फोम के ब्रेस्टफॉर्म भी भर दिए. न जाने क्या बात थी पर ब्रा का कसाव और मेरे सीने पर वो उभार मुझे बेहद सुकून दे रहा था. मैं खुद अपने हाथो को अपनी ब्रा के उभार पर फेरने लगी. दीदी के चेहरे के भाव थोड़े असमंजस में थे यह देख कर कि उनका छोटा भाई किस तरह से अब लड़की बन चूका है. वो समझ नहीं पा रही थी कि मेरी ख़ुशी देखकर वो खुश हो या भाई को खोने का दुःख. पर मैं तो बड़ी खुश थी, और मेरी ख़ुशी में खुश होना ही उन्होंने मुनासिब समझा.
फिर दीदी ने मुझसे कहा, “सोनू, तू अब बड़ी हो रही है. इसलिए तेरे लिए और भी कुछ लाई हूँ मैं!” और दीदी ने अपनी बैग से ५ रंग-बिरंगी सुन्दर नयी साड़ियाँ निकाली. “यह सब मेरे लिए दीदी?”, मैंने तो सातवे आसमान पर थी! आखिर किसी लड़की को जब पहली साड़ी मिलती है तो उसकी ख़ुशी की सीमा नहीं रहती. आखिर औरत बनने की ओर पहला कदम जो होता है साड़ी पहनना! उनमे से १ थी जो ख़ास अवसर पर पहनने वाली साड़ी थी और बाकी घर पर पहनने वाली. दीदी ने तो ब्लाउज भी सिलकर लायी थी मेरे लिए! “दीदी मुझे साड़ी पहनना सिखाओ न!”, मैंने दीदी से जिद की. और मेरी प्यारी दीदी ने मुझे प्यार से साड़ी पहनाई. कहाँ पिन लगाना है, कैसे पल्लू को रखना है और कैसे प्लेट बनाना है, एक एक बारीकी दीदी ने विस्तार से मुझे समझाई. और साड़ी पहनाने के बाद उनकी आँखों में ख़ुशी के आंसू थे. मैं अपने आप को संवर कर आईने में देखने से रोक न सकी. मेरे स्तनों पर मेरा ब्लाउज बहुत फब रहा था! खुद को आईने में देखकर मुझे यकीन नहीं हुआ. खुद को देखकर ही मैं उत्साहित थी. फिर दीदी ने एक बिंदी मेरे माथे पर लगायी और बोली, “अब देखो, कितनी सुन्दर लग रही है सोनू!” बहुत सुन्दर पल था वो जब हम दोनों बहनों ने एक दुसरे को गले लगा लिया था.
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मैं  खुद को आईने में निहारने लगी. अब मेरे पास भी लड़कियों का फिगर था.
“अच्छा सुन. मैं माँ के साथ ज़रा बैंक का काम निपटाने जा रही हूँ. मैं वापस आकर बातें करती हूँ  तुझसे!”, शिखा दीदी ने कहा और थोड़ी ही देर में वो माँ के साथ बाहर चली गयी. मधु दीदी को भी कुछ काम था तो वो भी बाहर चली गयी. अब घर में मैं बस अकेली थी. साड़ी पहनकर तो मैं कितनी खुश थी, बता नहीं सकती. मैं खुद को आईने के सामने निहारते हुए अपने पल्लू को तरह तरह से लहराते हुए खिलखिला रही थी. पहली साड़ी का प्यार ही कुछ और होता है! पर इसी बीच दरवाज़े पर घंटी बजी. “कौन हो सकता है?”, मैं सोचने लगी. और फिर साड़ी का पल्लू अपनी कमर में खसोंठ कर दरवाज़े की ओर बढ़ गयी.
दरवाज़ा खोली तो सामने अखिल था. उसे देखकर मैं बड़ी खुश हुई. मैं तो जैसे उसे अपना नया रूप दिखाना चाहती थी. और वो तो मुझे बस हक्का-बक्का होकर ऊपर से निचे तक देखता रह गया! आखिर पहली बार वो मुझे मेरे पूरे फिगर में देख रहा था! वो मुझे पूरी तरह देख पाता उसके पहले ही मैं उसका हाथ पकड़कर अपने साथ खींचकर अपने कमरे में ले आई.
z1.jpg“घर पर कोई नहीं है?”, अखिल ने लडखडाती आवाज़ में पूछा. मेरे रूप का उस पर कुछ कुछ असर हो रहा था. और मैं थी जो की इस बात से पूरी तरह अनजान थी! “नहीं कोई नहीं है! पर अखिल, सच सच बताना कैसी लग रही हूँ मैं?”, मैंने अपना पल्लू लहराते हुए अपनी साड़ी दिखाते हुए पूछा. वो बेचारा तो बस मेरी अदाओं से घायल हुए जा रहा था.
कुछ कहने की बजाय अखिल मेरे पास आया और मेरे इठलाते हुए एक हाथ को रोककर अपने दुसरे हाथ से मेरी नाभि को छूने लगा. वो मेरे बेहद पास आ गया था और मेरे स्तन उसके सीने को हलके से छू रहे थे. तब मुझे पहली बार एहसास हुआ कि अखिल ने पहली बार मेरी कमर को ऐसे खुली हुई देखा है. इसके पहले सलवार में वो मुझे कभी ऐसे नहीं देख सका था. इसके बावजूद मैं इन सबसे उनके शरीर पर होने वाले प्रभाव से अनजान थी. आखिर हम दोनों स्कूल में पढने वाले थे, और यह सब हमने कभी अनुभव भी नहीं किया था.
अखिल पहले भी मेरे करीब आ चूका था पर उसकी गहरी गर्म सांसें मैंने पहले यूँ महसूस नहीं की थी. न जाने उसके दिल में क्या सूझी और वो पीछे होकर कुर्सी पर बैठ गया. “अखिल, अब तक तुमने कहा नहीं मैं कैसी लग रही हूँ? क्या मैं अच्छी नहीं लग रही?”, मैंने उससे पूछा. मैं तो जैसे बस किसी के मुंह से अपनी सुन्दरता की तारीफ़ सुनना चाहती थी. मेरे दिल में उस वक़्त और कुछ नहीं था. बस थोड़ी सी चिंता थी कि मैं एक खुबसूरत लड़की नहीं लग रही हूँ. मैं अखिल के पास थोड़ी निराश होकर आगे बढ़ आई. पर उसने मेरा हाथ खिंच कर अपनी गोद में बैठा लिया.
“क्या कर रहे हो?”, मैंने थोडी नाराज़गी के साथ कहा. “तुम्हे अब तो एहसास हो गया होगा कि तुम कितनी खुबसूरत लग रही हो”, अखिल ने निचे इशारा करते हुए कहा. उसकी गोद में मेरी नितम्ब में उसका तना हुआ लिंग मुझे महसूस हुआ. और जैसे ही मैं यह बात समझी, मैंने कहा, “छि, कितने गंदे हो तुम!” और मैं उठकर जाने ही वाली थी कि उसने मेरी कमर से पकड़ कर मुझे रोक लिए और फिर एक हाथ से मेरे चेहरे को पकड़ लिए. और फिर अपने होंठो को मेरे होंठो के करीब ले आया. मुझे समझ न आया कि मैं क्या करूं. पर कुछ करने के पहले ही उसने अपने होंठो से मेरे होंठो को चूस लिया. मैंने झट से अपने चेहरे को पीछे खींचकर उसे धीरे से उसके चेहरे पर एक थप्पड़ दिया. यह सब ठीक नहीं है, यही तो मैंने अब तक बड़ो से सिखा था. पर मेरा थप्पड़ खाकर भी अखिल मुस्कुरा रहा था. और फिर उसने एक बार फिर मेरे होंठो को चूस लिया. मैं फिर पीछे होकर एक बार फिर उसे धक्का देकर दूर करने लगी. पर वो उतने ही जोश से मेरी कमर से मुझे खींचकर एक बार फिर मुझे चूमने लगा. झूठ नहीं कहूँगी पर मुझे उस वक़्त उसका चुम्बन बड़ा अच्छा लगा और न चाहते हुए भी मैं भी उसके होंठो को चूसने लगी. मेरे स्तन अब उसके सीने से दब रहे थे. हम दोनों जैसे अब उतावले होकर और जोरो से एक दुसरे के होंठो को चूसना चाहते थे. बीच बीच में मैं उसे प्यार से थप्पड़ मारती और वो दुगुने जोश से मुझे चूमने लगता.
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दरवाज़े की आवाज़ सुन हम दोनों एक दुसरे से अलग हो गए.
पर तभी निचे का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई. शिखा दीदी और माँ वापस आ गए थे. हम दोनों ने आवाज़ सुनते ही खुद को संभाला. मैं एक बार फिर अपने पल्लू को ठीक कर निचे जाने को तैयार होने लगी. और अखिल मुझे देख मुस्कुराता रहा. मैंने उसे गुस्से से आँखें दिखाई कि वो मेरी ओर ऐसे न देखे. पर उसे देखने से कैसे रोकती मैं? हम दोनों जल्दी ही निचे चले गए इससे पहले की कोई ऊपर आता. अखिल ने माँ और शिखा दीदी को छोटी दिवाली की शुभकामनाएं दी, और चलता बना. माँ को तो कोई शक नहीं हुआ पर शिखा दीदी की नजरो को देख कर लग रहा था कि उन्हें कुछ अंदेशा था. पर हमने इस बारे में कभी कोई बात नहीं की.
शिखा दीदी के साथ अगले कुछ दिन बहुत ख़ुशी से बीते. दीदी मेरे लिए कई परीक्षाओं की जानकारी लेकर आई थी. यदि मैं वो परीक्षा क्लियर कर सकू तो मुझे १२वी के बाद अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिल सकता है. वो चाहती थी कि मैं ऐसा ही कुछ करू ताकि मैं इस घर से बाहर जाकर फिर से सोनू बनकर एक लड़के की ज़िन्दगी जी सकू. शिखा दीदी कहती तो न थी पर उन्हें अपने भाई की बड़ी याद आती थी. अपने एकलौते छोटे भाई को इस तरह लड़की बनकर जीते देख उनको बड़ा दुख होता था. फिर भी वो कुछ कर नहीं सकती थी इस वक़्त मेरी माँ गीता के सामने, और छुट्टी के बाद वो वापस अपनी नौकरी करने आगरा चली गयी.

घर में आखिरी साल

शिखा दीदी ने मेरे लिए क्या कुछ नहीं किया था. सच कहूं तो मेरी ज़िन्दगी उनके एहसान के बोझ तले दबी हुई है पर वो कभी जताती नहीं. आज भी देखो मेरी मदद करने की ही कोशिश कर रही है, मुझे पता है. उफ्फ! अब तक नींद नहीं लगी है, और प्यास भी लग रही है. ज़रा किचन से पानी पीकर आती हूँ. मुझे थोडा ध्यान रखना पड़ेगा कि ज्यादा आवाज़ न हो नहीं  तो दीदी की नींद खुल जायेगी.
मैं किचन में पानी पी ही रही थी कि मेरी हलकी खटपट सुनकर शिखा दीदी भी वहां पहुच गयी. “सोनू, नींद नहीं आ रही तुझे?”, दीदी ने नींद भरी आँखों से मुझसे पूछा.
“नहीं दीदी. और प्यास भी लगी थी. आप क्यों उठ गयी? लगता है कि जीजू के बगैर ठीक ढंग से नींद नहीं आती तुम्हे. तभी तो इतनी हलकी सी आवाज़ में तुम जाग गयी.”, मैंने दीदी को ज़रा छेड़ा.
“अरे तेरे जीजू न हो तो ही बेहतर है! तभी अच्छी नींद आती है. तू नहीं समझेगी!”, दीदी बोली.
“अच्छा ऐसा क्या है जो मैं नहीं समझूँगी भला?”, मैंने दीदी से ऐसे ही पूछा.
“अरे जब तेरे जीजू बिस्तर पे बगल में होते है, तब उनकी तरफ मुंह करके सोने लगो तो थोड़ी देर में वो मुझे चूमने लगते है. और यदि उनसे मुंह पलटकर सोने लगो तो पीछे से आकर गले लग जाते है. और फिर कमर पर हाथ रखते है और फिर धीरे से स्तनों को दबाने लगते है.”, दीदी हँसते हुए बोल रही थी, “और दोनों ही स्थिति में नतीजा एक ही होता है. पति का प्यार रात गए जाग जाता है! मैंने कहा न तू नहीं समझेगी यह सब. यह तो कोई पत्नी ही समझ सकती है!”, दीदी और जोर से हँसने लगी.
“दीदी!!”, मैंने उनको ज़रा जोर से कहा, “यह सब बातें भी कोई बताता है भला?”
“अरे इसमें गलत क्या है पगली? अपनी छोटी बहन से न कहू तो क्या पड़ोसन को जाकर बताऊँ यह सब?”, दीदी ने कहा. दीदी भी न! कुछ भी कह सकती है मुझसे.
“जल्दी सो जाना”, एक बार फिर वो मुझे गले लगाकर  सोने चली गयी.
“तू नहीं समझेगी!”, दीदी की बात यादकर मुझे हँसी आ रही थी. थोडा बहुत तो मैं भी समझ सकती हूँ.
वो मेरा घर में आखिरी साल था. इंजीनियरिंग की परीक्षा की मैं जोर शोर से तैयारी कर रही थी. घर के सारे काम निपटाने के बाद मैं बस उसी में मगन रहती थी. तब मैं १२वी क्लास में जो थी. एक दिन मैं ऐसे ही स्कूल पहुची तो वहां नियति मेरा इंतज़ार कर रही थी. उसकी आँखों से पता चल रहा था कि ज़रूर कुछ चटपटा किस्सा है उसके पास सुनाने को.
“सोनाली! पता है मानसी ने क्या किया कल?”, उसने कहा. “क्या?”, मैंने पूछा. आखिरचटपटे किस्सों में मेरा भी इंटरेस्ट था.
“वो रघु है न? उसका बॉयफ्रेंड? उसको उसने ब्लो-जॉब दी! विश्वास कर सकती हो तुम?”, नियति को तो बताते हुए ही मज़ा आ रहा था. “ब्लो-जॉब? यह क्या होता है?”, मुझे सचमुच पता नहीं था. “तुझे नहीं पता?”, वो हँसने लगी. फिर मेरे कान में फुसफुसा कर मुझे समझाने लगी कि यह क्या चीज़ है. “मुंह में…? सचमुच ऐसा करते है? हमारी बायो की किताब में तो ऐसा कुछ नहीं लिखा था.”, मेरे लिए यह बिलकुल नयी बात थी. मैं थोड़े आश्चर्य में थी. “अरे बुक में सबकुछ थोड़ी लिखा होता है. लड़कियों को कभी कभी अपने बॉयफ्रेंड के लिए ऐसा करना पड़ता है. हाय! मेरा बॉयफ्रेंड कब बनेगा? लगता है जल्दी से शादी ही करनी पड़ेगी …”, नियति ने कहा. नियति का तो बस सपना था कि जितने जल्दी हो सके उसका बॉयफ्रेंड बने. पर उसे घर से ज्यादा बाहर निकलने नहीं दिया जाता था इसलिए उसका कोई बॉयफ्रेंड न था. तो वो बस जल्दी से शादी करना चाहती थी.  पर उसकी बात मेरे दिमाग में बस गयी कि लड़कियों को कभी कभी अपने बॉयफ्रेंड के लिए ऐसा करना पड़ता है!
मैं घर पहुंची तो वहां तो सब कुछ बदला हुआ सा था. घर का रंग रोगन हो रहा था. आखिर शिखा दीदी की शादी तय हो चुकी थी और एक हफ्ते में शादी भी होने वाली थी. कुछ दिन पहले ही यह शादी तय हुई थी. दीदी ने लड़का खुद पसंद किया था. तब के मेरे होने वाले जीजू यानी विनय आगरा में एक पब्लिकेशन कंपनी में मेनेजर थे. दोनों की मुलाकात वहीँ हुई थी और धीरे धीरे उन दोनों में प्यार भी हो गया था. विनय जीजू मेरी दीदी से काफी प्रभावित थे कि किस तरह वो काम में आगे बढ़कर अपने परिवार का सहारा भी बन रही थी. और फिर शिखा दीदी सुन्दर, शालीन और हंसमुख भी तो बेहद थी. बस फिर होना क्या था, वो अपने परिवार के साथ हमारे घर रिश्ता लेकर आये थे. कहने की ज़रुरत नहीं है पर मेरा परिचय घर की सबसे छोटी बेटी सोनाली के रूप में कराया गया था. मैं अब हाव-भाव और रूप-रंग से लड़की ही लगती थी तो किसी को कोई परेशानी भी नहीं हुई. बस विनय जीजू को मेरे बारे में सच पता था.
शादी के पहले की तैयारी में मेरी माँ गीता ने मुझे लगा दिया. दिन भर साफ़ सफाई करते और आने वाले गिने चुने मेहमानों का ख्याल रखते मैं थक जाती थी. किस्मत से गीता ने इस बार मधु दीदी को मेरी मदद करने की छुट दे दी थी. मैं और मधु दीदी तो इस शादी को लेकर बड़े खुश थे. शिखा दीदी ने हम दोनों को शादी और उसके पहले संगीत के कार्यक्रम के लिए महँगी साड़ी और लहंगा चोली जो खरीदवाई थी! एक लड़की के रूप में मेरी ऐसी ही छोटी छोटी खुशियाँ थी. दीदी के संगीत के दिन लहंगा चोली पहन कर डांस करने को मैं उत्साहित थी.
शादी के एक दिन पहले शाम को लेडीज़ संगीत का कार्यक्रम होना था. और उस दिन सुबह सुबह अखिल घर पर आया. “सोनाली”, अखिल ने चुपके से मुझे आवाज़ देकर एक कोने में बुलाया. मैं उस वक़्त साड़ी पहने घर में सुबह की साफ़ सफाई ही कर रही थी. उसे देखकर जब मैं कोने में पहुची तो वो मुझे तुरंत पकड़ कर चूमने लगा.
“धत्त! कोई देख लेगा”, मैंने कहा. मुझे डर जो था घर में इतने लोग भी थे. “सुन… मैं तुझे आज शाम को संगीत में डांस करते देखना चाहता हूँ.”, उसने कहा. “तो आ जाना देखने के लिए. मना कौन कर रहा है?”, मैंने नखरे दिखाते कहा. “ठीक है. मैं तो तुझे बस बता रहा था.”, ऐसा बोलकर वो दौड़कर किसी काम के चक्कर में चला गया. शादी की तैयारी में अखिल घर में काफी मदद कर रहा था. गीता को भी ठीक लगा कि एक तो लड़का हो जो सहायता करे. यह भी अजीब सी बात थी कि गीता घर से बाहर के लड़के से काम करवा रही है और अपने इकलौते बेटे को घर में लड़की बनाकर घरेलु काम में व्यस्त रखी हुई है. जो भी अखिल की मदद ही कारण था जिसकी वजह से  उसे संगीत में आने की और हमारे घर में जब चाहे घुमने की आज़ादी थी, वरना लेडीज़ संगीत में किसी और आदमी को न्योता न था.
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संगीत के लिए मैं लहंगा चोली पहन कर सज संवर रही थी. मैं आज अखिल के लिए डांस करने वाली थी 
उस शाम मैंने भी अपनी नयी नयी लहंगा चोली में सजधज कर खूब मस्ती की… और डांस करते वक़्त अखिल की ओर देखकर कुछ कुछ इशारे भी करती रही. और वो भी प्यार से मेरी ओर मुस्कुराकर देखता रहा. कोई और हम पर शक न करे इसलिए हम दोनों उस दिन थोडा छुप छुप कर ही एक दुसरे से मिल रहे थे. वो शाम तो ख़ास शिखा दीदी के लिए थी पर हम सभी को बड़ा मज़ा आ रहा था.
देर रात को जब संगीत ख़तम हुआ तो मैं अपना भारी से लहंगा उठाये अपने कमरे में आराम करने पहुंची. दिन भर के काम के बाद शाम को ऊँची सैंडल पहने मेरे पैर थक गए थे. मैं अब बस कपडे बदलकर सोना चाहती थी. इसी ख्याल से मैंने अपने दुपट्टे को सरकाकर अपनी चोली खोलने ही जा रही थी कि मेरे पीछे से अचानक ही अखिल ने आकर मुझे कमर से पकड़ लिया. मैंने उसे देखा नहीं था पर मैं जानती थी कि यह अखिल ही है. सच कहती हूँ उसे पास महसूस करके मुझे ख़ुशी ही थी. आखिर यह दिन प्यार का था और मैं भी प्यार महसूस करना चाहती थी. उसने मुझे पलटकर कसके अपनी बांहों में भर लिया. मुझे मुस्कुराते देख बिना कुछ कहे उसने मुझे चूमने की कोशिश की. पर मैं इतनी आसानी से कहाँ मानने वाली थी. मैंने उसे प्यार से धक्का दिया. पर वो कहाँ रुकने वाला था. हमारे पहले चुम्बन के बाद से हमने अच्छे से एक भी बार एक दुसरे को चुम्बन नहीं दिया था. तो दोनों के दिल में बेसब्री तो थी ही. उसने मुझे पकड़कर मेरे बिस्तर पर लिटा दिया और कमरा अन्दर से बंद कर दिया.
मैं जानती थी कि घर में सब थक चुके है इसलिए अब कोई मेरे कमरे में नहीं आएगा. वो मेरे ऊपर आकर मेरे सीने को मसलने लगा. और मैं उसे अपनी मोहक आँखों से रिझाते हुए एकटक देखने लगी. उसने मुझे फिर चूमने की कोशिश की तो मैंने उसे फिर धक्का देकर खुद से दूर कर दिया. आज मेरा इरादा कुछ और ही था. मैंने थोड़ी हिम्मत करके उसे बिस्तर पर लेटाकर खुद उसे बदहवास होकर चूमने लगी. वो तो जैसे इसी पल के इंतज़ार में था. हम न जाने कब तक आलिंगन करते एक दुसरे को चुमते रहे.  और वो कभी मेरे सीने के साथ खेलता या फिर कभी मेरे भारी से लहंगे को ऊपर सरकाकर मेरी टांगो को छूता. मैं भी कभी अपने दुपट्टे से उसके चेहरे को ढँक देती या उसकी शर्ट के निचे से हाथ डालकर उसके सीने को छूने लगती. हम दोनों ही बड़े उन्माद में थे और एक दुसरे के स्पर्श को महसूस कर रहे थे. हम दोनों के जिस्म में आग भी बढती जा रही थी.
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अखिल ने मुझे अपनी बांहों में भर लिया.
“लड़कियों को कभी कभी अपने बॉयफ्रेंड के लिए यह करना पड़ता है”, मुझे नियति की बात याद आ रही थी. मैं अखिल को चुमते हुए उसके शर्ट की बटन खोलते हुए उसके सीने पर हाथ फेरकर उसके मजबूत सीने को चूमने लगी. उसके सीने को चुमते हुए ऐसा लग रहा था कि मानो मैं अपने लड़की होने को पूरी तरह से अनुभव कर रही हूँ. उत्तेजना में मैंने उसके पेंट को भी खोल दिया जिसके अन्दर अखिल का तना हुआ लिंग मेरा इंतज़ार कर रहा था.  “लड़कियों को कभी कभी अपने बॉयफ्रेंड के लिए यह करना पड़ता है”, एक बार फिर वो बात याद करते हुए मैंने उसके लिंग को अपने मुंह में ले लिया. और उस उत्साह में उसका पूरा शरीर अकड़ गया. मैंने भी आखिर अपने बॉयफ्रेंड के लिए यह कर ही लिया था! उस रात आगे क्या क्या हुआ मुझे बताने की ज़रुरत नहीं है पर उस रात मेरे मन में संतोष और सुकून था. मैं भी एक अच्छी गर्लफ्रेंड थी, मुझे यकीन हो गया था.
अगले दिन मेरे चेहरे पर एक चमक थी. आखिर मैं खुश जो थी. अखिल भी खिल रहा था. शिखा दीदी की शादी बड़ी धूमधाम से संपन्न हुई. उस दिन दीदी को दुल्हन के लिबास में देखकर मैं भी भारी सी साड़ी पहने मन ही मन सोच रही थी कि दीदी की सुहागरात के पहले मेरी सुहागरात हो गयी थी!
दीदी की शादी के बाद सब कुछ फिर पहले जैसा हो गया था. फिर वोही गीता की डांट फटकार सुनना और घर के काम करना. पर इन सब के बीच मैंने इंजीनियरिंग की परीक्षा अच्छे रैंक से पास कर ली थी. शिखा दीदी और विनय जीजू मुझे काउंसलिंग कराने साथ लेकर गए थे. वहां मैं सोनाली नहीं, बल्कि सुनील या सोनू बनकर गयी थी. मुझे दिल्ली के अच्छे कॉलेज में एडमिशन मिल गया था. मेरे जीवन में एक नया समय शुरू होने वाला था. पिछले कुछ सालों में मैं पूरी तरह लड़की बन चुकी थी. अब यह एक अजीब सी दुविधा थी… मैं सालों से लड़का बनने का इंतज़ार कर रही थी पर अब मुझे अच्छी तरह लड़का होना भी नहीं आता था. स्कूल तो किसी तरह निकल गया था पर कॉलेज में अब खुद मुझे अकेले लडको के बीच रहना पड़ेगा. मेरी तो अब आदत हो चुकी थी गाउन या साड़ी पहनकर सोने की. अब कुरता पैजामा पहनकर सोना और लडको की तरह बोलना मुझे एक बार फिर से सीखना होगा.
घर में मेरी माँ गीता तो मानो अलग ही दुनिया में जी रही थी. उसे अब भी लगता था कि मैं कॉलेज में भी सोनाली बनकर रहूंगी. उसे समझाना बेकार था इसलिए किसी ने उससे कुछ कहा नहीं. बस शिखा दीदी ने मुझसे इतना कहा था कि घर आओ तो सोनाली बन कर आना और अपने बालों को मत कांटना.
जहाँ एक ओर दिल्ली अकेले जाने की ख़ुशी भी थी वहीँ अखिल से बिछड़ने का गम भी था. उसे चंडीगढ़ में एडमिशन मिला था. आगे हमारी ज़िन्दगी में साथ था या नहीं, यह तो हम नहीं जानते थे पर एक दुसरे से विदा लेते वक़्त आगे मिलने का सपना ज़रूर देखा था हमने.

क्रमशः …

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